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________________ बौद्धदर्शन का विशेषार्थ दे सकेंगे? इस विज्ञान की सत्ता शून्यवादियो को भी माननी पडेगी, नहिं तो तर्कशास्त्र असिद्ध हो जायेगा। विज्ञान की सत्ता के लिये लंकावतार सूत्र में कहा है कि - "चित्तं प्रवर्तते चित्तं, चित्तमेव विमुच्यते । चित्तं हि जायते नान्यच्चित्तमेव निरुध्यते ॥१४५॥" अर्थात् चित्त-विज्ञान की ही प्रवृत्ति होती है । विज्ञान-चित्त की ही विमुक्ति होती है। चित्त को छोडकर दूसरी वस्तु उत्पन्न नहीं होती है और चित्त का ही निरोध होता है। चित्त का नाश नहीं होता। चित्त एकमात्र तत्त्व है। विज्ञान के अन्यपर्याय चित्त मन विज्ञप्ति है। कोई विशिप्रक्रिया की प्रधानता मानकर ये शब्दो व किया गया है। चेतन क्रिया से संबद्ध होने से वह चित्त कहा जाता है। मनन क्रिया करने से मन तथा विग्यो को ग्रहण करने में कारणभूत होने से उसे विज्ञान कहा जाता है। वही बात लंकावतारसूत्र के श्लोक १०२में की है। चित्तमालयविज्ञानं मनो यन्मन्यतात्मकम् । गृह्णाति विषयान् येन विज्ञानं ही तदुच्यते ॥१०२॥ उपरांत उनका यह मानना है कि, इस विश्व में जितने हेतु-प्रत्यय से जनित संस्कृत पदार्थ है। उनका न तो आलंबन है और न तो कोई आलंबन देनेवाला ही है। वे पदार्थ निश्चित रुप से चित्तमात्र है। चित्त के चित्र-विचित्र नानाकार, परिणाम है । साधारण मानवी आत्मा को नित्य स्वतंत्र सत्ता मानता है। परन्तु वह केवल व्यवहार के लिये संज्ञा (प्रज्ञप्तिसत्य) के रुप में खडा किया गया है। वह वास्तव में द्रव्य (द्रव्य सत्) कोई भी प्रकार से नहीं है। वह पाँच स्कन्धो का समुदाय माना जाता है। परन्तु पंचस्कन्ध स्वयं संज्ञारुप है। द्रव्यरुप से उसकी सत्ता सिद्ध नहीं होती । इस जगत में न तो भाव विद्यमान है न तो अभाव विद्यमान है। चित्त को छोडकर कोई भी पदार्थ सत् नहीं है। परमार्थ को नाना (विविध) धर्मो से बोला जाता है। तथता, शून्यता, निर्वाण, धर्मधातु ये सब परमतत्त्व के पर्यायवाचि नाम है। चित्त ( आलयविज्ञान) को ही तथता के नाम से बोला जाता है। इसलिये योगाचार का परिनिष्ठित मत इस अनुसार है। दृश्यते न विद्यते चित्तं चित्रं हि दृश्यते। देहभोगप्रतिष्ठानं चित्तमात्रं वदाम्यहम् ॥लंकावतार ३/३३॥ अर्थात् बाह्य दृश्यजगत विद्यमान नहीं है। चित्त एकाकार नहीं है। परन्तु चित्त इस जगत में विचित्ररुपो से देखा जाता है। कभी वह चित्त देह के रुप में तो कभी भोगके रुप में प्रतिष्ठित रहता है। इसलिये चित्त की वास्तविक सत्ता है। जगत चित्त का परिणाम है। चित्त दो प्रकारो के प्रतीत होते है। (१) ग्राह्य-विषय, (२) ग्राहक-विषयी । यही बात को बताते है। चित्तमात्रं न दृश्योऽस्ति, द्विधा चित्तं हि दृश्यते । ग्राह्यग्राहकभावेन शाश्वतोच्छेदवर्जितम् ॥ लंकावतार ३/६५॥ -ग्रहण करनेवाली वस्तु की उपलब्धि के समय तीन पदार्थ उपस्थित होते है. एक तो जिसका ग्रहण करना हो वह (घट-पटादि विषय). दूसरा वस्तु को ग्रहण करनेवाला (विषयी-कर्ता) और तीसरी वस्तु है वे दोनो का परस्परसंबंध अर्थात् ग्रहण।। ग्राह्य, ग्राहक और ग्रहण अथवा ज्ञेय, ज्ञाता और ज्ञान, ये तीन सर्वत्रविद्यमान होते है। साधारण दृष्टि से ये तीन वस्तु की सत्ता है। परन्तु ये तीन ही एकाकारबुद्धि (या विज्ञान अथवा चित्त) के परिणाम है, जो वास्तविक नहीं है, परन्तु काल्पनिक है । भ्रान्त दृष्टिवाला व्यक्ति ही इस त्रिपुटी की कल्पना करके भेदवाला बनाता है। कहा है कि... Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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