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बौद्धदर्शन का विशेषार्थ
विज्ञान और बाह्यवस्तु की समकालिनप्रतीति दोनो की एकता बताती है। यह कहना वह भी यथार्थ नहीं है। क्योंकि, आरंभ से ही जब हम घटका प्रत्यक्ष करते है, तब घटकी प्रतीति बाह्यपदार्थ के रुप में होती है। विज्ञान अनन्तररुप में प्रतीत होता है। लोकव्यवहार भी बताता है कि, ज्ञान का विषय तथा ज्ञान के फल में अंतर है। घट की प्रतीतिकाल में घट प्रत्यक्ष का विषय है । तथा उसका फल अनुव्यवसाय ("घटज्ञानवानहं" अथवा "वह्निव्याप्यधूमवन्तं पर्वतमहं जानामि" ऐसा जो अनुव्यवसाय) पीछे से होता है। इसलिये विज्ञान तथा विषय का पार्थक्य मानना न्यायसंगत है । यदि विषय और विषयी की अभेद कल्पना मान लेंगे तो 'में घट हूँ' ऐसी प्रतीति होनी चाहिए। विषयी है 'हूं' और विषय है 'घट' । दोनो की एकरुप में अभिन्न प्रतीति होनी चाहिए। परन्तु लोक में ऐसा कभी नहीं होता। इसलिये घट को विज्ञान से पृथक् मानना चाहिए।
यदि समग्रपदार्थ विज्ञानरुप ही हो, तो उसमें परस्पर भेद किस प्रकार मानेंगे ? घट कपडे से भिन्न है। परन्तु विज्ञानवाद में तो वह एक विज्ञान का स्वरुप होने से उसका एकाकारपन होना चाहिए । इसलिये सौत्रान्तिकमत में बाह्यजगत की सत्ता उतनी ही प्रमाणिक और अभ्रान्त है, जितनी आंतरजगत के विज्ञान की सत्ता । बाह्यार्थ की प्रतीति के विषय में सौत्रान्तिको का विशिष्टमत है। वैभाषिक लोग बाह्य अर्थ को प्रत्यक्ष मानता है। दोषरहित इन्द्रियो द्वारा बाह्य अर्थ की जैसी प्रतीति हमको होती है वैसे ही वे बाह्य पदार्थ है। परन्तु सौत्रान्तिको का इसके उपर आक्षेप है कि.... यदि समग्रपदार्थ क्षणिक ही है, तो कोई भी वस्तु के स्वरुप का प्रत्यक्ष होना संभव नहीं है। जिस क्षण में कोई वस्तु के साथ हमारी इन्द्रियो का सम्पर्क होता है, उसी क्षण में वह वस्तु प्रथम क्षण में उत्पन्न होके अतीत के गर्भ में चला जाता है। केवल तज्जन्य संवेदन शेष रहते है। प्रत्यक्ष होनेसे पदार्थो के नील, पीत आदि चित्र चित्तके पट के उपर खींचके आते है। मन के उपर जो प्रतिबिंब उत्पन्न होता है, उसको चित्त देखता है और उसके द्वारा वह उसके उत्पादक बाह्यपदार्थो का अनुमान करता है।(नीलपितादि जो श्लोक आगे बताया है। वह इस बात को सूचित करता है।) इसलिये बाह्य अर्थ की सत्ता प्रत्यक्षगम्य नहीं, अनुमानगम्य है। यह सौत्रान्तिकवादियों का सबसे प्रसिद्ध सिद्धांत है। ज्ञान के विषय में वे स्वतः प्रामाण्यवादि है। उनका कहना है कि जिस प्रकार प्रदीप खुद को स्वयं जानता है - प्रकाशित करता है। उस प्रकार से ज्ञान अपना संवेदन अपने आप ही करता है और उसका नाम है "स्वसंवित्ति" अर्थात् संवेदन । यह सिद्धांत विज्ञानवादियो को संमत (मान्य) है। बाह्यवस्तु विद्यमान अवश्य रहती है ( वस्तुसत् ) । परन्तु सौत्रान्तिको में मतभेद यह है कि बाह्यपदार्थों का कोई आकार है या नहीं । कुछ लोगो का कहना है कि बाह्य पदार्थो का स्वयं अपना आकार होता है। कुछ दार्शनिको की मान्यता में वस्तु का आकार बुद्धि द्वारा निर्मित किया जाता है। बुद्धि ही आकार को पदार्थ में सन्निविष्ट करती है। तीसरे प्रकार के मत में उपर के दोनो मतो का समन्वय है। उनके अनुसार वस्तु का आकार
उभयात्मक होता है। (४) परमाणुवाद के विषय में भी सौत्रान्तिको का अपना एक विशिष्ट मत है । उनका कहना यह है कि,
परमाणुओ में कोई प्रकार का पारस्परिक स्पर्श का अभाव होता है। स्पर्श वह पदार्थो में होता है कि जो अवयव से युक्त हो । लेखिनी (पेन-कलम) और हाथ का स्पर्श होता है। क्योंकि दोनो सावयव पदार्थ है । परमाणु निरवयवपदार्थ है। इसलिए एक परमाणु का दूसरे परमाणु के साथ स्पर्श नहीं हो सकता । यदि दोनो का स्पर्श होगा तो दोनो में तादात्म्य हो जायेगा। जिससे अनेक परमाणुओ का संघात होने पर भी उसका परिमाण अधिक
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