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________________ बौद्धदर्शन का विशेषार्थ ९३ (ग) क्लेशमहाभूमिक धर्म : बुरे कार्यो के विज्ञान के सम्बन्ध छः धर्म है । (१) मोह : (अविद्या) -- अज्ञान, प्रज्ञा से विपरित धर्म-संसार का मूल । (२) प्रमाद, (३) कौसीद्य : कुशलकार्य में अनुत्साह, (४) अश्राद्ध्य : श्रद्धा का अभाव । (५) स्त्यान : अकर्मण्यता, (६) औद्धत्य : सुख तथा क्रीडा में हमेशां लगा रहना । (घ) अकुशलमहाभूमिक धर्म : वह दो प्रकार के है। ये दोनो प्रकार में सदैव बुरा फल उत्पन्न करता है। इसलिये वह अकुशल है। (१) आहीक्य : अपने कुकर्मो के उपर लज्जा का अभाव, (२) अनपत्रता : निंदनीय कार्यो में भय न रखना। () उपक्लेशभूमिक धर्म : परिमित रहनेवाले क्लेश उत्पादक धर्म दस यह है। (१) क्रोध, (२) म्रक्ष : छल या दंभ, (३) मात्सर्य : दूसरे के गुण या उत्कर्ष का द्वेष करना, (४) इर्ष्या : घृणा, (५) प्रदास : बुरी वस्तुओ को ग्राह्य मानना, (६) विहिंसा : कष्ट पहुंचाना। (७) उपनाह : शत्रुता, मैत्री तोडना, (८) माया : छल, (९) शाठ्य : शठता, (१०) मद : आत्मसन्मान से प्रसन्नता । ये दस धर्म बिलकुल मानस है। वह मोह या अविद्या के साथ संबंध रखता है । इसलिये उसे ज्ञान के द्वारा दबाया जा सकता है। उसे क्षुद्रभूमिवाला माना जाता है। (च) अनियतभूमिक धर्म : ये धर्म पूर्वधर्मो से भिन्न है । इस धर्मो की घटना की भूमि निश्चिंत नहीं है । वे आठ है। (१) कौकृत्य : खेद, पश्चात्ताप, (२) मिद्ध (निद्रा): विस्मृति-परक चित्त, (३) वितर्क : कल्पना परक चित्त की दशा, (४) विचार : निश्चय, (५) राग, (६) द्वेष, (७) मान, (८) विचिकित्सा : संशय, संदेह । (२) सौत्रान्तिकमत :- नीलपितादिभिश्चित्रैर्बुद्ध्याकारैरिहान्तरैः। सौत्रान्तिकमते नित्यं बाह्यार्थस्त्वनुमीयते ॥(गाथार्थ आगे बताया गया है।) सौत्रान्तिकमत भी सर्वास्तिवादियो की दूसरी प्रसिद्ध शाखा है। सौत्रान्तिक लोग सूत्र (सुत्रान्त) को ही बुद्धमत की समीक्षा के लिये प्रामाणिक मानता है। "तथागत" का आध्यात्मिक उपदेश “सुत्तपिटक" के ही कुछ सूत्रो में सन्निविष्ट है । वे लोग उसको प्रमाणित कहते है। इससे उसका नाम सौत्रान्तिक पडा है । (वैभाषिक लोग, अभिधर्म की 'विभाषाटीका' को ही सर्वतः प्रमाणित मानते है। इससे उसका नाम वैभाषिक पड़ा हुआ है। सौत्रान्तिको 'अभिधर्मपिटक' को बुद्धवचन नहीं मानते है।) सौत्रान्तिक मत के संस्थापक आचार्य कुमारलात माना जाता है। और उसे संभवत: नागार्जुन के समकालीन माना जाता है । यह आचार्य महायान (हीनयान और महायान का वर्णन आगे करेगें। उसमें महायान) के प्रति विशेष आदरवाले थे। . __सिद्धांत : सत्ता के विषय में सौत्रान्तिक सर्वास्तिवादी है। अर्थात् उनकी दृष्टि में धर्मो की सत्ता मान्य है ।वे लोग केवल चित् ( या विज्ञान ) की ही सत्ता नहीं मानते है। परन्तु बाह्य पदार्थों की भी सत्ता स्वीकार करते है। (विज्ञानवादियों की यह मान्यता है कि विज्ञान ही एकमात्र सत्ता है । बाह्यपदार्थ की सत्ता मानना वह भ्रान्ति तथा कल्पना पर आश्रित है। इसके उपर सौत्रान्तिको का आक्षेप है कि यदि बाह्य पदार्थ की सत्ता नही मानेंगे तो उसकी काल्पनिक स्थिति की भी समुचित व्याख्या नहीं की जा सकेगी। विज्ञानवादियो का कहना है कि "भ्रान्ति के कारण ही विज्ञान बाह्यपदार्थो के समान प्रतीत होता है।" उसके सामने सौत्रान्तिक लोग कहते है कि, वह साम्य की प्रतीति तब सुयुक्तिक है कि जब बाह्यपदार्थ वस्तुतः विद्यमान हो. अन्यथा जैसे विन्ध्यापुत्र के समान कहना निरर्थक है। इस प्रकार से 'अविद्यमान बाह्यपदार्थ के समान है' ऐसा बताना यह भी अर्थशून्य है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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