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________________ बौद्धदर्शन का विशेषार्थ उत्पन्न होता है । भविष्य में उसकी उत्पत्ति की संभावना बनी रहती है। परन्तु "अप्रतिसंख्यानिरोध" का फल "अनुत्पादनज्ञान" है। भविष्य में रागादि क्लेशो की किसी भी प्रकार से उत्पत्ति नहीं होती । जिससे भवचक्र से सदा के लिये मुक्तिलाभ कर लेता है। ये तीनो धर्म स्वतंत्र है और नित्य है। चित्त : इस जगत में आत्मा नाम का कोई स्थायी नित्य पदार्थ नहीं है। वस्तुओ को ग्रहण करनेवाला कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं है। वह केवल हेतु और प्रत्यय के परस्पर मिश्रण से उत्पन्न होता है। साधारण रुप से हम जिसको जीव कहते है। बौद्धदर्शन उसके लिये चित्त शब्द का प्रयोग करता है। चित्त की सत्ता वहाँ तक रहती है कि जहाँ तक इन्द्रिय तथा ग्राह्यविषयो के परस्पर घात-प्रतिघात अस्तित्व है और जब इन्द्रियो और विषयो के परस्पर घातप्रतिघात का अंत हो जाता है, तब चित्त की भी समाधि हो जाती है। यह कल्पना सर्वास्तिवादि (वैभाषिक), स्थविरवादि और योगाचार तीनो को मान्य है। वे मानते है कि सर्वदा चित्त प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है और कार्य-कारण के नियमानुसार नवीनरुप धारण करता है। बौद्ध दर्शन में चित्त, मन तथा विज्ञान समानार्थक माने जाते है। जब हमे चित्त की निर्णयात्मक प्रवृत्ति रखनेवाले अंश के उपर प्रधानता देनी होती है तब हम 'मन' का प्रयोग करते है। चित्त वस्तुओ को ग्रहण करने में जब प्रवृत्त होता है, तब चित्त की संज्ञा "विज्ञान' है। चित्त का अर्थ है - कोई भी वस्तु का सामान्यज्ञान, आलोचनमात्र या निर्विकल्पज्ञान। चित्त वस्तुतः एक ही धर्म है। परन्तु आलंबनो की भिन्नता के कारण उसके सात प्रकार इस अनुसार होते (१) मनस् : छठ्ठी इन्द्रिय के रुप में विज्ञान का अस्तित्व। मन के द्वारा हम बाह्य इन्द्रियो से अगोचर पदार्थो को अथवा अमूर्त पदार्थो का ग्रहण करते है। मनोविज्ञान के उदय होने पर भी पूर्वक्षण का मन प्रतीक होता है। (२-६) चक्षुविज्ञान, श्रोत्रविज्ञान, घ्राणविज्ञान, जिह्वाविज्ञान, कायविज्ञान - आलोचन ज्ञान, जब चक्षु आदि इन्द्रियो के साथ सम्बद्ध होता है, तब उसकी तत् तत् विभिन्न संज्ञाएँ होती है। (३) चैत्तधर्म : चित्त के साथ घनिष्ट रुप से संबंध रखने के कारण चैत्तधर्म को “चित्तसंप्रयुक्त धर्म" भी कहा जाता है। चैत्तधर्म की संख्या ४६ है। वह नीचे के छ: प्रकारो में बांटा गया है। (क) चित्तमहाभूमिक धर्म : साधारण मानसिक धर्म है। जो विज्ञान की प्रतिक्षण में विद्यमान रहता है । इस धर्म की संख्या दस है । (१) वेदना : सुख, दुःख, असुखदुःख - उदासीनता । (२) संज्ञा : नाम । (३) चेतना : प्रयत्न (चित्तप्रस्यन्दः) । (४) छन्द : इच्छितवस्तु की अभिलाषा, (५) स्पर्श : विषय तथा इन्द्रियो का प्रथम संबंध । (६) प्रज्ञा : मति, विवेक जिसके द्वारा संकीर्ण धर्मो का संपूर्ण पृथक्करण होता है। (७) स्मृति : स्मरण ।(८) मनसिकार : अवधान । (९) अधिमोक्ष : वस्तु की धारणा । (१०) समाधि : चित्त की एकाग्रता। (ख) कुशलमहाभूमिक धर्म : दस शोभन नैतिक संस्कार है कि, जो अच्छे कार्य है। वह अनुष्ठान की प्रतिक्षण में विद्यमान रहता है। (१) श्रद्धा : चित्त की विशुद्धि, (२) अप्रमाद : अच्छे कार्यो में जागृति, (३) प्रश्रब्धिः चित्त की लघुता, (४) अपेक्षा : चित्त की समता-प्रतिकूल वस्तु से प्रभावित न होना, (५) ही : हमारे कार्यो की लज्जा, (६) अपत्रया : दूसरो के कार्यो की ओर लज्जा, (७) अलोभ : त्यागभाव, (८) अद्वैष : मैत्री, (९) अहिंसा (१०) वीर्य : शुभकार्य में उत्साह । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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