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बौद्धदर्शन का विशेषार्थ
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पद । ( १३ ) पद-कार्य = वाक्य । (१४) व्यंजन कार्य = वर्ण ।
वैभाषिक मतानुसार असंस्कृत धर्म :
(पूर्व में) असंस्कृत शब्द की व्याख्या करते वक्त बताया है कि, यह धर्म हेतु प्रत्यय से उत्पन्न न होने से कारण वे स्थायी और नित्य है । आश्रव (रागादि मल) के संपर्क से नितान्त विरहित होने से ये धर्म अनाश्रव (विशुद्ध) तथा सत्यमार्ग का द्योतक माना जाता 1
स्थविरवादियों की ( वैभाषिक स्थविरवादि का ही प्रभेद है। उसकी कल्पना असंस्कृत धर्म एक ही है और वह निर्वाण है। निर्वाणका अर्थ है बूजना । जैसे अग्नि अथवा दीपक बुज जाता है। तृष्णाके कारण नामरुप (विज्ञान तथा भौतिक तत्त्व) जीवनप्रवाह का रुप धारण करके सर्वदा प्रवाहित रहता है। इस प्रवाह के अत्यंत उच्छेद को ही निर्वाण कहा जाता है ।
जो अविद्या, राग-द्वेष आदि के कारण यह जीवन-संतान की सत्ता बनी हुई है। उस अविद्या के निरोध अथवा समुच्छेद से निर्वाण का उदय होता है । और वह इस जीवन में उपलब्ध होता है, अथवा शरीरपात होने के बाद उत्पन्न होता है। इसलिये उसके दो प्रकार है । (१) सोपधिशेष, (२) निरुपधिशेष ।
आश्रव क्षीण होने से जो अर्हत् जीवित रहता है, उसमें पांच स्कन्धप्रयुक्त अनेक विज्ञान शेष रहते है. इसलिए उस निर्वाण का नाम है - सोपधिशेष ।★ शरीरपात होने से संयोजन (बंधन) के क्षय के साथ साथ उपाधियां दूर हो जाती है उसे "निरुपधिशेष" निर्वाण कहा जाता है
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ये दोनो निर्वाण में इतना भेद है कि जो जीवन्मुक्ति और विदेहमुक्ति में है। (जीवन्मुक्ति और विदेहमुक्ति सेश्वरवादि सांख्य (पातंजल) और अद्वैत वेदांती की मान्यता है | )
क्लेश तथा कर्म की निवृत्ति होने से पुरुष जीता होने पर भी मुक्त होता है । उसको जीवन्मुक्त कहा जाता है। और देह छोड देने के बाद विदेहमुक्त कहा जाता है ।) वैभाषिकों ने (सर्वास्तिवादियोंने) इस असंस्कृत धर्म के तीन प्रकार माने है। (१) आकाश, (२) प्रतिसंख्यानिरोध, (३) अप्रतिसंख्यानिरोध ।
(१) आकाश : " तत्राकाशम् अनावृत्तिः" अनावृत्ति का तात्पर्य यह है कि आकाश न तो दूसरो को आच्छादित करता है। न तो दूसरे धर्मो के द्वारा (स्वयं) आवृत्त होता है। कोई भी रुप को अपने में प्रवेश करने से रोकता नहीं है। आकाश नित्य, अपरिवर्तनशील असंस्कृतधर्म है। इसलिये आकाश भावात्मक पदार्थ है । वह शून्यस्थान नहीं । न तो भूत या भौतिक पदार्थो का निशेषरुप है।
(२) प्रतिसंख्यानिरोध : 'प्रतिसंख्या' का अर्थ है प्रज्ञा अथवा ज्ञान । प्रज्ञा द्वारा उत्पन्न सास्स्रवधर्मो का पृथक्-पृथक् (भिन्नभिन्न) वियोग । यदि प्रज्ञा का उदय होने से कोई सास्रवधर्म के विषय में राग या ममता का सर्वथा परित्याग किया जाये तो उस धर्म के लिये "प्रतिसंख्यानिरोध" का उदय होता है । जैसे कि, सत्कायदृष्टि, यह समस्तक्लेशो की जननी है। इसलिये ही ज्ञान द्वारा उस भावना का सर्वथा निरोध कर देना वह असंस्कृत धर्मो का स्वरुप है ।
(३) अप्रतिसंख्यानिरोध : अर्थात् प्रज्ञा के बिना ही निरोध । पूर्वनिर्दिष्ट निरोध जब प्रज्ञा के बिना ही स्वाभाविक रुप से उत्पन्न होता है, तब वह अप्रतिसंख्यानिरोध कहा जाता है । जिस हेतु प्रत्ययो के कारण जो धर्म उत्पन्न होता है, उसको ही दूर कर देने से वह धर्म स्वभावत: निरुद्ध हो जाता है। जैसे कि ईन्धन के अभाव से अग्नि । इस निरोध की विशेषता यह है कि वह भविष्य में उत्पन्न नहीं होता ।
“प्रतिसंख्यानिरोध” में “आश्रवक्षयज्ञान" उत्पन्न होता है । अर्थात् समस्तमलो के क्षीण होने से ही ज्ञान
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