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________________ बौद्धदर्शन का विशेषार्थ (३) घ्राणइन्द्रिय आयतन (९) गंध आयतन (४) जिह्वाइन्द्रिय आयतन (१०) रस आयतन (५) स्पर्श (कायेन्द्रिय) आयतन (११) स्पष्टव्य आयतन (६) बुद्धि (मन) इन्द्रिय आयतन (१२) बाह्य इन्द्रिय से अग्राह्य विषय (धर्म अथवा धर्मायतन) वैभाषिको (सर्वास्तिवादि) का कथन है कि उनके सिद्धांत को बुद्धने स्वयं प्रतिपादित किया है। अपने उपदेश के समय उन्हों ने स्वयं कहा था कि “समस्त वस्तुएं विद्यमान है। कौनसी वस्तुएं विद्यमान है ? ऐसे प्रश्न के जवाब में बुद्धने कहा था कि बार आयतन सर्वदा विद्यमान रहते है और उसको छोडकर अन्य वस्तुएं विद्यमान रहती नहीं है।" इस कथन का यह अर्थ है कि वस्तु की सत्ता के लिये बारह आयतन आवश्यक है। वे या तो पृथक् इन्द्रियरुप में अथवा या तो पृथक् इन्द्रिय ग्राह्य विषय होना चाहिए। ये दोनो में से एक भी न हो, तो उसकी सत्ता मान्य नहीं है। जैसे "आत्मा" की सत्ता, जो न तो इन्द्रिय है, न तो इन्द्रियो के द्वारा ग्राह्यविषय है। इसलिए आत्मा की सत्ता नहीं है। (३) अठारह धातु : ("धातु" शब्द वैद्यक शास्त्रानुसार लिया है, उस) अनुसार इस शरीर में अनेक धातुओ का सन्निवेश है। इस प्रकार से बुद्धधर्म इस जगत में अनेक धातुओ की सत्ता मानते है। अथवा "धातु" शब्द खनीज पदार्थो के लिये व्यवहत होता है। जिस प्रकार से गहरे खड्डे में से धातु बाहर निकाली जाती है। उस प्रकार से सत्ताभूत जगत के भिन्न-भिन्न अवयवो या उपकरणो को "धातु" कहा जाता है । जो शक्तिओ के एकीकरण से घटनाओ का एक प्रवाह (संतान ) निष्पन्न होता है। उसकी संज्ञा "धातु" है। छ: इन्द्रिय, छः विषय, तथा छ: विज्ञान, इस प्रकार अठारह धातु है। इन्द्रिय और विषय का वर्णन उपर है। इन्द्रियो का विषय के साथ संपर्क होने से एक प्रकार का विशिष्ट ज्ञान (विज्ञान) उत्पन्न होता है। वह इन्द्रियो की संख्या के अनुसार ६ प्रकार का है। त्रैधातुक जगत का परस्पर भेद : बौद्धधर्म इस विश्व को तीन लोक में विभक्त करता है और उसके लिए "धात" शब्द प्रयुक्त है। (उपर के विभाजन में धात् शब्द भिन्न अर्थ में है।) जगत दो प्रकार का है। (१) भौतिक (रुपधातु) (२) अभौतिक धातु । भौतिकलोक दो प्रकार का होता है । वासना-कामना से युक्त लोक-कायधातु तथा कामनाहीन, विशुद्धभूत निर्मित (जगत) रुपधातु है। ★ कायधातु में जो जीव निवास करता है, उसमें अठारह धातु विद्यमान रहता है। (ब) विषयगत वर्गीकरण : वैभाषिकोने (सर्वास्तिवादियोने) ये धर्मो की संख्या ७५ मानी है। उसके पहले हुआ स्थविरवादियोने १७० मानी है। और उसके बाद होनेवाले योगाचारने १०० मानी है। तीनो संप्रदायो के अनुसार धर्म के प्रथमतः दो विभाग है । (१) संस्कृत, (२) असंस्कृत । संस्कृत - सम् - सम्भूय अन्योन्यमपेक्ष्य कृताः जनिता इति संस्कृता - अर्थात् परस्पर मिलकर, एकदूसरे की सहायता से उत्पन्न होनेवाले धर्म, उसे संस्कृत कहा जाता है। संस्कृतधर्म हेतु प्रत्यय से उत्पन्न होता है और इसलिये वह अस्थायी, अनित्य, गतिशील तथा आश्रव (रागादि मल) से संयुक्त होता है। इससे विपरीत धर्मो को असंस्कृत कहा जाता है, कि जो हेतुप्रत्यय से उत्पन्न नहीं होते, इसलिये ही वे स्थायी, नित्य, गतिहीन तथा अनाश्रव होता है। असंस्कृत धर्म का अवान्तरभेद नहीं है। परन्तु संस्कृत धर्मो के चार अवान्तरभेद वैभाषिको ने किया है । (१) रुप, (२) चित्त, (३) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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