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बौद्धदर्शन का विशेषार्थ
बौद्धदर्शन का विशेषार्थ
बौद्धो के चार भेद : (१) वैभाषिक, (२) सौत्रान्तिक, (३) योगाचार, (४) माध्यमिक । (१) वैभाषिक मत की मान्यता : उसका दूसरा नाम आर्यसमितीय है । उनका मत इस अनुसार है । वस्तु
चारक्षणवाली है। उसमें जातिक्षण उत्पन्न होता है, स्थितिक्षण स्थापित करता है । जराक्षण जर्जरीत करता है। विनाशक्षण विनाश करता है । इस अनुसार आत्मा भी उस प्रकारका ही पुद्गल कहा जाता है। अर्थ के साथ होनेवाला, एक सामग्री के आधीन जो निराकार बोध है, वह यहाँ अर्थ में प्रमाण है।
बौद्धधर्म के सिद्धान्त का केन्द्रबिन्दु और बुद्ध-दर्शन का समस्तसिद्धान्त जिसके उपर प्रतिष्ठित है उसका नाम धर्म है। "धर्म" शब्द का प्रयोग भारतीय दार्शनिक जगतमें बहोत सारे अर्थो में होता है। बौद्धदर्शन में 'धर्म' का अभिप्राय भूत और चित्त के सूक्ष्मतत्त्वो से है। जिसका पृथक्करण ज्यादा नहीं हो सकता, उसके ही धर्मो के आघात और प्रतिघात से वह वस्तु संपन्न होती है। उसे जगत कहा जाता है । यह जगत बौद्ध धर्म की कल्पनानुसार धर्मों के परस्पर मिलन से एक संघातमात्र है। वे धर्म अत्यंत सूक्ष्म है वे सत्तात्मक होते है। और इसलिए सत्ता बौद्धधर्म के आदिकाल में तथा वैभाषिक सहित सौत्रान्तिक और योगाचार को सर्वथा मान्य है।
पुद्गल - नैरात्म्य को मानने का तात्पर्य धर्मो की सत्ता में विश्वास करना वह है। निर्वाण की कल्पना का संबंध इस धर्मो के अस्तित्व से नितान्तगहन है। ये धर्मो के रुप में गौतमबुद्ध के उपदेश का सारांश नीचे के श्लोक में है।
ये धर्मा हेतु- प्रभवा हेतुं तेषां तथागतो ह्यवदत् । अवदच्च यो निरोधो एवंवादी महाश्रमणः ॥ ___-इस जगत में जितने धर्म है वे हेतु से उत्पन्न हुओ है। उनके हेतु को बुद्धने बताया है। उस धर्मो का निरोध भी होता है। महाश्रमणने उसके निरोध का भी कथन किया है।
धर्म की कल्पना से नीचे की बाते मान्य करते हैं। (१) प्रत्येक धर्म पृथक् सत्ता रखता है-पृथक् शक्तिरुप है। (२) एक धर्म का दूसरे धर्म के साथ किसी प्रकार का अन्योन्याश्रय, समवायसंबंध नहीं है। इसलिये ही गुणो से अतिरिक्त द्रव्य
की सत्ता नहीं होती। इस प्रकार से भिन्न-भिन्न इन्द्रिय ग्राह्य विषयो को छोडकर 'भूत' की पृथक् सत्ता नहीं होती । इस प्रकार से भिन्न-भिन्न मानसिक व्यापारो से अतिरिक्त आत्मा की सत्ता नहीं है। (धर्म = अनात्म) धर्म क्षणिक होता है। एक क्षण में एक धर्म रहता है। चैतन्य स्वयं क्षणिक है । एकक्षण से अतिरिक्त वह रहता नहीं है। गतिशील शरीरो की वस्तुतः स्थिति नहीं होती। प्रत्युत नये स्थानो में नयेधर्मो का संतानरुप में आविर्भाव होता है कि जो गतिशील द्रव्य जैसा दीखता है। (धर्मतत्त्व = क्षणिकत्व) धर्म परस्पर मिलके नवीन वस्तु को उत्पन्न करता है । कोई धर्म अकेला वस्तु का उत्पादन नहीं करता है। धर्म परस्पर मिलकर नयी वस्तु का उत्पादन करता है । (संस्कृत) धर्म के परस्पर व्यापार से जो कार्य उत्पन्न होता है वह कार्य-कारण नियम के वश में रहता है। इस जगत के सर्व धर्म परस्पर कार्य-कारण रुप से संबद्ध है और उसका नाम प्रतीत्यसमुत्पाद है। (जिसका वर्णन आगे
किया हुआ है।) (६) यह जगत वस्तुतः सूक्ष्म (७२ प्रकार के) धर्मो के संघात का परिणाम है। धर्म का यह स्वभाव है कि वह कारण
से उत्पन्न होता है। (हेतु-प्रभव) और अपने विनाश की ओर स्वतः आगे बढ़ता है। (निरोध)
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