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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - १२, बोद्धदर्शन
टीकाका भावानुवाद :
• योगाचारमत इस प्रकार है - यह संसारमात्र विज्ञानस्वरुप ही है। बाह्य अर्थ की सत्ता नहीं है। क्योंकि ज्ञानाद्वैत ही तात्त्विक है। ज्ञानसंतान अनेक है। साकारबोध प्रमाण है। अनादिकालीन वासना के परिपाक से ही ज्ञान में नील-पितादि अनेक आकारो का प्रतिभास होता है। आलयविज्ञान की विशुद्धि को ही मोक्ष कहा जाता है।
माध्यमिक मत इस प्रकार है : यह जगत शून्य है। प्रमाण और प्रमेय का विभाग स्वप्न जैसा ही है। शून्यता के दर्शन से मुक्ति होती है और क्षणिकत्वादि शेषभावनाएँ शून्यता के पोषण के लिये ही है। कुछ माध्यमिको ने ज्ञान को साकार माना है। (कोई बाह्य पदार्थ आलंबन नहीं होता, वह निरालंबन ही होता है।) कहा है कि - "मतिमान वैभाषिक ज्ञान और अर्थ का स्वीकार करते है। सौत्रान्तिक बाह्य वस्तु के इस विस्तार को प्रत्यक्ष मानता नहीं है। योगाचार साकारबुद्धि को ही परमतत्त्व मानते है और माध्यमिक स्वाकार ज्ञान = निरालंबन ज्ञान को ही परमतत्त्व मानते है।
बौद्धो के ज्ञानपारमिता इत्यादि दस ग्रंथ है। तर्कभाषा, हेतुबिन्दु, अर्चटकृत हेतुबिंदु की अर्चटतर्क नाम की टीका, प्रमाणवार्तिक, तत्त्वसंग्रह, न्यायबिन्दु, कमलशीलकृत तत्त्वसंग्रह पञ्जिका, न्यायप्रवेशक इत्यादि बौद्धो के प्रसिद्ध ग्रंथ है।
इस अनुसार बौद्धमत का निरुपण करके, उसका उपसंहार करने के लिये तथा उत्तर प्रकार दर्शन का प्रारंभ करने के लिए ग्रंथकारश्री कहते है कि... ___ यह बौद्ध सिद्धांत का संक्षिप्त वर्णन किया गया । बौद्धसिद्धांत का जो वाच्यार्थ है, उसका संक्षेप विवेचन यह नजदीक में (पास में) कहा गया।
॥ श्रीतपागच्छरुपी आकाश में सूर्यसमान प्रतापी श्रीदेवसुन्दरसूरिजी के चरणकमल के उपासक श्रीगुणरत्नसूरिजी विरचित तर्करहस्यदीपिका नाम की षड्दर्शन समुच्चय ग्रंथ की टीका में बौद्धमत को प्रकट करनेवाला प्रथम अधिकार सानुवाद पूर्ण हुआ ॥
।। अस्तु ।
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