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________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, संशोधक प्रतिभावः - प्रस्तुत ग्रंथ की विशेषतायें तो बहोत है, परन्तु अन्यत्र न दिखाई दे ऐसी विशेषतायें, कि जो देखनेवाले को, अभ्यास करनेवाले को, तुरंत नजर में आ जाये ऐसी हैं, उसमें से नीचे बताये अनुसार कुछ हैं(१) "नामूलं लिख्यते किंचित्" - कोई भी मान्यता, आचार, मत या सिद्धान्त किसी भी दर्शन का लिखे तो उसमें टिप्पणी में अथवा पास में शास्त्रपाठ का अवतरण अवश्य दिखाई देता है । जो विशेषता उपरोक्त उक्ति को सिद्ध करती हैं । (२) जैनदर्शन में खास तौर पे नय, सप्तभंगी, निक्षेप आदि पदार्थो का सुसूक्ष्म निरुपण, उपरांत क्रमानुसार रजूआत, युक्तियों द्वारा उक्तियों का समर्थन । १६ (३) इतर दर्शन जैसे कि, बौद्धादि दर्शनो का क्वचित् ही दिखाई देता आचार- मान्यता विषयक विवरण एवं उन के पदार्थ संबंधित रजूआत । (४) वाक्य, शब्दरचना, अल्पविराम इत्यादि में पर्याप्त सुव्यवस्था । (५) जहाँ आवश्यकता देखी वहाँ कठिन शब्दो का समानार्थ शब्द अथवा उसके भावार्थ का विवरण । (६) वेदान्त दर्शन की विभिन्न शाखाओं का परिचय एवं विभिन्न स्थानों में से उसका उद्धरण करके उसकी सुस्पष्ट रजूआत इत्यादि । (७) प्रस्तुत ग्रंथ की प्रारंभ की " भूमिका", कि जिस में सभी दर्शनो की हल्की सी रुपरेखा (Guide line) दी गई है, कि जिसमें सभी दर्शनो के तत्त्वनिर्देश तथा देवता, दार्शनिक सिद्धान्त, प्रमाण विचार, ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार परिचय भूमिका में ही समाविष्ट है, कि जिससे वाचको को केवल भूमिका मात्र के अभ्यास से ही दर्शन पदार्थ का सामान्य बोध हो सकता हैं । उपरोक्त मुद्दे और दूसरी बहोत विशेषतायें लेखक श्री के लेखन में देखने को मिलती है । परन्तु स्थान के अभाव में उसे केवल स्मृति में ही रखकर संतोष मानना पडे ऐसा है । इस तत्त्वसभर ग्रंथ की अर्थसभर सुलभ रजूआत (पेशकश) करके लेखक श्रीने दुर्गम ऐसे कार्य को साङ्गोपाङ्ग पार उतारने का प्रामाणिक प्रयत्न किया है । उसके लिए लेखक श्रीने उठाये हुई परिश्रम की रजूआत नहीं करनी चाहिए, फिर भी दो शब्द कहे बिना नहीं रह सकता । लेखक श्रीने कई दिनों के परिश्रम के बाद अर्थात् लगभग एक वर्ष का परिश्रम लेकर लगभग तत् तत् शास्त्रो मूर्धन्य ग्रंथो का अवलोकन करके, विभिन्न व्याख्यायें, शास्त्रपाठ देखकर और हिन्दी भाषान्तर, पूफ में रही हुए भूलों को भी उद्धृत करके वाचक वर्ग को पूर्णतया सरलता प्रदान करने का अनूठा कार्य किया है । इसलिए ही दुर्लभ और दुर्गम लगते दार्शनिक सिद्धान्तों का भी प्रकृत ग्रन्थ में एकत्रीकरण हुआ दिखाई देता है। अतिशय परिश्रमपूर्वक का यह ग्रंथ वाचक वर्ग को दर्शनों के पदार्थों का सम्यक् बोध करने में सहायक बने और ज्यादा से ज्यादा वाचक वर्ग इस ग्रंथ का लाभ ले, ऐसी अंतर की शुभेच्छा सह विराम लेता 1 कार्तिक वद द्वि. ३, २०६८ दिनांक १४-११-२०११ वार - सोमवार मेहुल शास्त्री (न्यायाचार्य-तर्कवारिधि:) ५, राधाकृष्णनगर, गोंडल, जनपद-राजकोट (गुजरात) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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