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________________ षडदर्शन समुच्चय, भाग-१, संशोधकप्रतिभावः न्यायदर्शन में भी उसके प्रवर्तक आचार्य से लेकर न्याय के पदार्थ विज्ञान की चर्चा और इतर दर्शन से भिन्न सिद्धान्त और प्रमाण-प्रमेय इत्यादि पदार्थो का सुसूक्ष्म आलेखन दृष्टिगोचर होता है । वैशेषिक दर्शन में भी उसके संस्थापक आचार्य से लेकर पदार्थो का विवरण दिखाई देता है । सांख्य-योग और बौद्ध, कि जिसके बारे में पर्याप्त ग्रंथ उपलब्ध नहीं है, ऐसे दर्शनो के भी हाल पुस्तक रुप में और प्रतरुप में उपलब्ध ऐसे ग्रंथो का सहारा लेकर उस काल के तत् तत् दर्शनो के आचार, मान्यतायें और खास करके बौद्ध दर्शन कि जिसकी लुप्त शाखायें, इत्यादि का अप्राप्य ऐसा बहोत विवरण देखने को मिलता है, कि जो दूसरे दर्शन के ग्रंथो से इस ग्रंथ की मुख्य विशेषता हैं । जैन दर्शन के हृदय समान माने जाते स्याद्वाद=अनेकान्तवाद का परिचय, कि जो मूल में और संस्कृत टीका में दिया ही हैं । परन्त उसका विशदीकरण एवं सरलीकरण करके लेखक श्रीने उसे विशिष्ट प्रकार से बताया है। ___ वस्तु को उसके समग्र रुप से जानना, देखना और उसमें रहे हुए यावत् धर्मो से उसका ज्ञान करना और विरुद्ध लगते वाक्यों को भी नय, निक्षेप द्वारा, सापेक्ष भाव द्वारा समन्वित करने में जैनदर्शन का प्रभुत्व प्रतीत होता हैं। जैनदर्शन के पदार्थ, कि जो मूलकार श्री हरिभद्रसूरी म.सा. ने और टीकाकार श्री गणरत्नसूरी. म.सा.ने बताये हैं, लेखकश्रीने उसमें बहोत बढावा करके तत तत पदार्थो को लोकभोग्य बनाने का बहोत ही प्रयत्न किया है । तदुपरांत अपने जैन-दर्शन के बहोत ही महत्त्व के पदार्थ नय, निक्षेप, सप्तभंगी इत्यादि का सुस्पष्ट परिचय लेखकश्री ने प्रस्तुत ग्रंथ में दिया है और जैनदर्शन का सामान्य परिचय देकर उसमें विशेष पदार्थो की पेशकश करके इतर दर्शन से जैन दर्शन की विशेषताओं का सरल भाषा में विवेचन किया गया हैं । ___ अप्रसिद्ध ऐसे बौद्ध दर्शन का परिचय भी सुस्पष्ट रुप से दिया है और उसके तत्त्व निरूपण, आचार इत्यादि का साङ्गोपाङ्ग वर्णन कि जो तत्, तत् ग्रंथो में दिखाई देता था, उन सब का एक ही ग्रंथ में अन्तर्भाव हो जाये, उस प्रकार सबके अर्क समान पदार्थ परोसने की जो लेखकश्री की शैली हैं, वह ध्यान खिंचती है । उपरांत, तत् तत् ग्रंथो का सामूल अवलोकन करके ग्रंथस्थ करने का प्रयत्न किया है वह बहोत ही अनुमोदनीय है । लेखकश्रीने यह परिश्रम केवल श्रुतसेवा के यह उत्तम हेतु से ही किया है । वाचक वर्ग उसे स्वयं पढकर अन्यों को प्रेरणा देकर पढाये और इस प्रकार लेखकश्री के इस परिश्रम को सार्थक करे वही अपेक्षा है। प्रकृत ग्रंथ के विषय में एवं लेखकश्री के विषय में लिखने समय एक सुभाषितकार की मनोव्यथा याद आती है। व्यथा यह है कि, “सोने में यदि विधाता ने सुगंध रखी होती तो उसका मूल्य कितना बढ जाता ! । गन्ने में यदि फल आते तो वे कितने मधुर होते ! । विद्वान सूवक्ता होते तो विद्वत्ता को चार चांद लग जाते ! । उपरांत, राजा यदि दीर्घायुष्यधारी होता तो पृथ्वी पर शांति का साम्राज्य होता !। दार्शनिक उससे भी आगे कल्पना करते हुए कहते है कि, प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति में यदि परिश्रम नाम का बीज और लेखन शक्तिरूप जल का यदि सुयोग हुआ होता तो दर्शन सिद्धान्त रूपी फल अवश्य लोकभोग्य बना होता!। इन तीनो का अर्थात् प्रतिभा, परिश्रम और लेखनशक्ति का समन्वय जिन में है, ऐसे पू. मुनि श्री संयमकीर्तिविजयजी म. सा. प्रतिभा के बल से दर्शनो के ग्रंथो का अवलोकन करके, सूक्ष्मतत्त्वो का विवरण, तार्किक युक्तियों द्वारा एवं शास्त्रपाठो के आधार लेकर परिश्रम द्वारा एवं सरलतम लेखन शक्ति से अन्य दर्शनो के कठिन पदार्थ घटित ऐसा भी ग्रंथ देवगुरु आदरणीयों की कृपा रुप प्रसाद से लिख सके है । जो अतीव अनुमोदनीय कार्य हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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