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________________ १४ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, संशोधकप्रतिभावः संशोधकप्रतिभावः तत् तत् दर्शनो के सिद्धान्तो का साम्य तथा वैषम्य समजना, वैसे तो सामान्य लोगो के लिए कठिन हैं । क्योंकि, उसके लिए दार्शनिक परिभाषा (Philosophical Terminology) का अभ्यास होना चाहिए । इसलिए बहोत ही महत्त्व के हो, ऐसे भी दर्शन के विषय लोकभोग्य नहीं बनते हैं । क्योंकि उसके पदार्थों का विवरण न्यायगर्भित सूत्रात्मक - टीकात्मक और गूढ होते हैं। उस सूत्रात्मक - टीकात्मक और गूढार्थवाली भाषा को - पदार्थों को यदि सरल भाषा में, विवरणात्मक रुप से लोगो के समक्ष रखा जाये, अलग-अलग जगह पर आते पक्ष, सिद्धांत, मान्यतायें और दार्शनिक पदार्थो का यदि एकत्रीकरण किया जाये, तो वह सामान्य तथा विद्वान दार्शनिक विद्यार्थी जगत में उसका बहोत उपकारक हो सकता हैं। उसमें किसी की भी विप्रतिपत्ति नहीं हो सकती । ___ परन्तु यह कार्य बोलने जैसा करना आसान नहीं हैं । उसके लिए पर्याप्त परिश्रम, अनेक दर्शनशास्त्र के ग्रंथो का आलोडन, क्षीरनीरन्याय से सिद्धांतो को चुनना, उसकी सरल भाषा में रजूआत (पेशकश) करनी हो, तो वर्षो की मेहनत के बाद वह कार्य संभव होता हैं । प्रस्तुत ग्रंथ के लेखक पू.मु. श्री संयमकीर्तिविजयजी महाराज साहब ने उस दुष्कर लगते कार्य को सुकर बनाने का कड़ा प्रयास किया है । इसलिए ही “षड्दर्शन समुच्चय" नामक ग्रंथ, कि जो पू. पूर्वाचार्य श्री हरिभद्रसूरी म.सा. रचित था, उसकी ऐसी - तत् तत् दर्शनो के पदार्थों का सरल रुप से बोध करा सके ऐसी हिन्दी व्याख्या की अतीव आवश्यकता थी । वह आज ग्रंथ के रुप में साकारित हुई है । दर्शन के मूर्धन्य माने जाते पू.पूर्वाचार्य श्री हरिभद्रसूरी म.सा. रचित 'षड्दर्शनसमुच्चय' ग्रंथ के उपर पूर्वाचार्य तार्किकरत्न श्री गुणरत्नसूरीजी. म.सा.ने 'तर्करहस्य दीपिका' नामक व्याख्या लिखी थी । परन्तु वह दार्शनिक शैली में - दार्शनिक भाषा में लिखी हुई थी । भाषा संस्कृत होने से और तार्किक शैली में लिखी हुई होने से वह सामान्य लोगो के लिए दुर्गम थी। परन्तु लेखकश्री ने उसके उपर प्रथम गुजराती व्याख्या, उसके बाद प्रस्तुत हिन्दी व्याख्या (परिशिष्ट - दार्शनिक पदार्थो का विवरण, साक्षीपाठ सहित) लिखी है । वह वाचको के लिए गागर में सागर की तरह बहोत सारे दार्शनिक ग्रंथ, उसके सिद्धान्तों के निचोडरूप हैं । प्रस्तुत ग्रंथ की व्याख्या में लेखकश्रीने दर्शनो के सिद्धान्त, तत्त्व, मान्यतायें इत्यादि की सुस्पष्ट क्रमानुसार विवेचना की है, कि जिसमें न्याय-वैशेषिक, योग-सांख्य, वेदान्त, मीमांसा, बौद्ध, जैन, चार्वाक दर्शनों का समावेश होता है। ___ उसमें वेदान्तदर्शन में वेदान्त के तत् तत् ग्रंथो में आते सिद्धान्तो का और वेदान्त के आन्तरभेद जैसे कि द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत इत्यादि का प्रतिपादन सरल भाषा में देखने को मिलते है । जिससे वेदान्त की सभी शाखायें और उसके संस्थापक आचार्यों के मतो का भी विवरण विस्तृत दिखाई देता है । मीमांसा दर्शन के बारे में भी उसके प्रमाणो की चर्चा, उसके सिद्धान्तो का विवरण, प्रमेय का निरुपण इत्यादि तथा उसके आन्तरभेद जैसे कि गुरुमत, कुमारील भट्टमत इत्यादि मतो का भी सुस्पष्ट विवरण देखने को मिलता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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