________________
षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, किंचित्
भावार्थ : सत्त्व, असत्त्व इत्यादि वस्तु के ही धर्म हैं, धर्मो के धर्म नहीं हैं । क्योंकि “धर्मो के धर्म होते नहीं हैं" ऐसा वचन हैं।
प्रश्न : इस तरह से वस्तु के ही धर्म मानने से एकान्तवाद का स्वीकार किया माना जायेगा और आपके अनेकान्तसिद्धान्त की हानि होगी।
उत्तर : यह बात युक्त नहीं हैं । अनेकान्तवाद सम्यग् एकान्त के बिना संभव नहीं होता है । यदि अनेकान्त में सम्यक् एकान्त नहीं मानोंगे तो अनेकान्तवाद हो ही नहीं सकेगा । अर्थात् वस्तु का स्वरूप ही निश्चित नहीं हो सकेगा । यथायोग्य नय की अपेक्षा से एकान्तवाद का और प्रमाण से अनेकान्तवाद का ही उपदेश हैं और इस तरह से ही प्रत्येक पदार्थ किसी विरोध के बिना सुंदर प्रकार से व्यवस्थित रहा हुआ हैं ।
वर्तमान में कुछ लोग “धर्म मोक्ष के लिए ही हो" ऐसे सम्यग् एकान्त उपदेश से भड़क के (या भड़काके ?) उसके सामने अनेकान्त के नाम से "संसार के सुख के लिए भी धर्म हो" ऐसे उपदेश के द्वारा अनेकान्ताभास का समर्थन करके तत्त्व की हानि करते हैं । उनको यह बात बराबर समजनी चाहिए और तत्त्व का निश्चित स्वरूप श्रोता के हृदय में स्थिर हो ऐसा करना चाहिए।
जगत में जयकारी श्री जिनेश्वर भगवान के शासन की यथार्थ श्रद्धा करके सम्यग्दर्शन की शुद्धि करके सभी जीव परमपद को प्राप्त करे वही प्रार्थना ।
- पूज्य मुनिराज श्री दर्शनभूषणविजयजी म.सा. का विनेय पं. दिव्यकीर्तिविजयगणी,
सुरत
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org