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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, किंचित्
"किंचित्"
मोक्षमार्ग की साधना को निर्मल बनाने के लिए सम्यग्दर्शन की शुद्धि अति आवश्यक हैं । सम्यग्दर्शन की शुद्धि के लिए स्याद्वाद की रुचि जगाना आवश्यक है और उसके लिए स्याद्वाद का अभ्यास करना आवश्यक हैं । स्याद्वाद का सांगोपांग अभ्यास करके तत्त्व-अतत्त्व का वास्तविक बोध प्राप्त करने के लिए छ: दर्शनो का अभ्यास करना जरूरी हैं। पहले गुजराती अनुवाद के रूप में प्रकाशित हुए प्रस्तुत ग्रंथ का यह हिन्दी प्रकाशन उसमें जरूर सहायक होगा।
इस ग्रंथ में अन्य दर्शनों के निरुपण के साथ अंत में जैनदर्शन के निरूपण में बहोत पदार्थो की पेशकश में विविधता और विशेष स्पष्टता दिखाई देती है । जैसे कि...
नुनु सिद्धानां कर्मक्षयः किमेकान्तेन कथञ्चिद्वा ! आद्येऽनेकान्तहानि:, द्वितीये सिद्धानामपि सर्वथा कर्मक्षयाभावादसिद्धत्वप्रसङ्गः, संसारीजीववदिति । अत्रोच्यते । सिद्धैरपि स्वकर्मणां क्षयः स्थित्यनुभागप्रकृतिरूपापेक्षया चक्रे, न परमाण्वपेक्षया। न ह्यणुनां क्षयः केनापि कर्तुं पार्यते, अन्यथा मुद्गरादिभिर्घटादीनां परमाणुविनाशे कियताकालेन सर्ववस्त्वभावप्रसङ्गः स्यात्। ततस्तत्राप्यनेकान्त एवेति सिद्धं दृष्टेष्टाविरुद्धमनेकान्तशासनम् ।
भावार्थ : सिद्ध भगवान को सर्वथा एकान्त से कर्म का क्षय मानोंगे तो स्याद्वाद की हानि होगी और सर्वथा नहीं मानोंगे तो असिद्धत्व मानना पडेगा । ऐसी पूर्वपक्षी ने आपत्ति दी, उसके उत्तर में ग्रंथकार ने बताया कि -
सिद्ध भगवान को कर्म का क्षय परमाणु की अपेक्षा से नहीं हैं । परन्तु कर्मों की प्रकृति आदि की अपेक्षा से हैं । अणु का क्षय तो कभी भी हो ही नहीं सकता । परमाणु का क्षय मानने से तो सर्व वस्तु के अभाव का प्रसंग आयेगा । इस तरह से अनेकान्त शासन प्रत्यक्ष सिद्ध होता हैं ।
वैसे ही गाथा-५७ की टीका में एक स्थान पे स्यादवाद सम्यग् एकान्त से दृढ बनता हैं, यह बात बहोत स्पष्ट की है। वस्तु में “जिस अंश से सत्त्व हैं, उस अंश के द्वारा एकांत सत्त्व माना जाये" तो एकान्त मानने से स्याद्वाद की हानी होगी और “जिस अंश के द्वारा सत्त्व है, वही अंश के द्वारा सत्त्वासत्त्व माने जाये", तो अनवस्था आयेगी। ऐसे पूर्वपक्ष के आक्षेप का जवाब देते हुए ग्रंथकारने बताया कि...
....सत्त्वासत्त्वादयो वस्तुन एव धर्माः, न तु धर्माणां धर्माः, 'धर्माणां धर्मा न भवन्ति' इति वचनात् । न चेवमेकान्ताभ्युगमादनेकान्तहानिः, अनेकान्तस्य सम्यगेकान्ताविनाभावित्वात्, अन्यथानेकान्तस्यैवाघटनाद्, नयार्पणादेकान्तस्य प्रमाणादनेकान्तस्यैवोपदेशात्, तथैव दृष्टेष्टाविरुद्धस्य तस्य व्यवस्थितेः ।
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