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________________ ७० षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १०, बोद्धदर्शन इससे स्थिर और स्थूल घट-पटादि वस्तु को ग्रहण करनेवाले सविकल्पक ज्ञान की प्रत्यक्षता का निराकरण होता है । (कहने का आशय (मतलब) यह है कि, बौद्धमत में निर्विकल्पक ज्ञान ही प्रमाण बन सकता है। क्योंकि, वह एक क्षणस्थायि होता है तथा विकल्पो से रहित है। इसलिये विकल्प सहित का सविकल्पक ज्ञान प्रमाणभूत नहीं बन सकता ।) उपरांत, वह प्रत्यक्ष किस प्रकार का है? वह प्रत्यक्ष भ्रान्ति से रहित है। "अतस्मिंस्तद्ग्रहो भ्रान्तिः" अर्थात् अतस्मिन् में तद् का ग्रह वह भ्रान्ति । अर्थात् जो पदार्थ जैसा न हो वैसा ज्ञान करना उसे भ्रान्ति कहते है। यह भ्रान्ति का लक्षण है। (जैसे कि, शुक्ति में होता रजत का ज्ञान भ्रान्ति है।) तथा प्रत्यक्ष असद्भूत वस्तु का ग्राहक नहीं है । परन्तु परस्परभिन्न क्षणिकपरमाणु स्वरुप स्वलक्षणार्थ का परिच्छेदक है। इससे (अभ्रान्तविशेषण से) तिमिररोगि इत्यादि को होनेवाला प्रत्यक्षज्ञानो का निराकरण हो जाता है। इदं प्रत्यक्षं चतुर्धा-9 । इन्द्रियज्ञानं, मानसं, स्वसंवेदनं, योगिज्ञानं च । तत्र चक्षुरादीन्द्रियपञ्चकाश्रयेणोत्पन्नं बाह्यरूपादिपञ्चविषयालम्बनं ज्ञानमिन्द्रियप्रत्यक्षमB-10 । स्वविषयानन्तरं विषयसहकारिणेन्द्रियज्ञानेन समनन्तरप्रत्ययसंज्ञकन जनितं मनोविज्ञानं मानसम-11, स्वविषयस्य घटादेरिन्द्रियज्ञानविषयस्यानन्तरो विषयो द्वितीयः क्षणः, तेन सहकारिणा सह मिलित्वेन्द्रियज्ञानेनोपादानेन समनन्तरप्रत्ययसंज्ञकेन यज्जनितं मनोविज्ञानं तन्मानसम् । समनन्तरप्रत्ययविशेषणेन योगिज्ञानस्य मानसत्वप्रसङ्गो निरस्तः । समनन्तरप्रत्ययशब्दः स्वसंतानवर्तिन्युपादाने ज्ञाने रूढ्या प्रसिद्धः । ततो भिन्नसंतानवतियोगिज्ञानमपेक्ष्य पृथगजनचित्तानां समनन्तरव्यपदेशो नास्ति । सर्वचित्तचैत्तानामात्मसंवेदनंस्वसंवेदनम् B-12 चित्तं वस्तुमात्रग्राहकं ज्ञानं। चित्ते भवाश्चैत्ता वस्तुविशेषरुपग्राहकाः सुखदुःखोपेक्षालक्षणाः । तेषामात्मा येन संवेद्यते तत्स्वसंवेदनमिति । भूतार्थभावनाप्रकर्षपर्यन्तजं योगिज्ञानम् । भूतार्थः प्रमाणोपपन्नार्थः । भावना पुनः पुनश्चेतसि समारोपः ।भूतार्थभावनाप्रकर्षपर्यन्ताज्जातं योगिज्ञानम् -13 । टीकाका भावानुवाद : प्रत्यक्ष के चार प्रकार है। (१) इन्द्रिय प्रत्यक्ष, (२) मानस प्रत्यक्ष, (३) स्वसंवेदन प्रत्यक्ष, (४) योगि प्रत्यक्ष। उसमें बाह्य रुपादि पाँच विषयो का आलंबन करके चक्षु आदि पाँच इन्द्रियो से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान इन्द्रिय प्रत्यक्ष कहा जाता है। जो विषयक्षण से इन्द्रियज्ञान उत्पन्न होता है उस विषय की द्वितीयक्षण जिसमें विषयरुप से सहकारीकारण है तथा स्वयं इन्द्रिय प्रत्यक्ष जिस में उपादानकारण बनता है वह इन्द्रिय प्रत्यक्षानन्तरभावि (अनुव्यवसायात्मक) ज्ञान को मानसप्रत्यक्ष कहा जाता है। (जैसे कि) जो घटादि (B-9-10-11-12-13) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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