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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - १०, बोद्धदर्शन
विषयक्षण से इन्द्रियज्ञान उत्पन्न होता है, वह द्वितीयक्षण जिसमें विषयस्वरुप कारण बनती है तथा (इन्द्रियज्ञान, जिसमें उपादानकारण है अर्थात् ) उपादानकारण इन्द्रियज्ञान है, वह इन्द्रियप्रत्यक्षानन्तरभावि उत्पन्न होनेवाले ज्ञान को मनोविज्ञान = मानस प्रत्यक्ष कहते है ।
"स्वविषयानन्तरे विषयसहकारिणेन्द्रियज्ञानेन ।
(इस विषय में न्यायबिंदु में कहा है कि समनन्तरप्रत्ययेन जनितं तत् मनोविज्ञानम् ॥ ११९ ॥
अर्थात् विषय के अनन्तर = पश्चात् विषय के सहकारिसमन्तर प्रत्ययरुप इन्द्रियो के ज्ञान से उत्पन्न होनेवाले ज्ञान को मानसप्रत्यक्ष कहा जाता है ।
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बौद्ध दर्शन में ज्ञान के चार प्रत्यय (कारण) माने जाते है । (१) आर्बलन प्रत्यय, (२) सहकारि प्रत्यय, (३) अधिपति प्रत्यय, (४) समनन्तर प्रत्यय । यहाँ घटज्ञान के विषय में ये चारो प्रकार के प्रत्ययो का परिचय इस प्रकार है। नेत्र से घट का ज्ञान होने में प्रथम कारण घट ही है, वह ज्ञान का विषय होने से “आलंबन प्रत्यय” कहा जाता है। प्रकाश के बिना चक्षु घट का ज्ञान नहीं कर सकता। इससे ‘प्रकाश’ को' सहकारि प्रत्यय' कहा जाता है। इन्द्रिय का नाम " अधिपति" है। इसलिये "अधिपति प्रत्यय" स्वयं इन्द्रिय है। चौथा कारण, ग्रहण करने की और विचार करने की जो शक्ति है, जिसके उपयोग से कोई भी वस्तु का साक्षात्कार होता है और वह "समनन्तर प्रत्यय" कहलाता है। (संक्षिप्त में चक्षुआदि इन्द्रियो से जो ज्ञान उत्पन्न हुआ है उस ज्ञान को समनन्तर प्रत्यय बनाकर जो मन उत्पन्न होता है वही मानस प्रत्यक्ष है ।]
यहाँ मानस प्रत्यक्ष की व्याख्या में "समनन्तर प्रत्यय" विशेषण का ग्रहण होने से योगिज्ञान में मानस प्रत्यक्षत्व की आपत्ति का निराकरण होता है। क्योंकि, योगिज्ञान में इन्द्रियप्रत्यक्ष उपादान कारण नहीं बनता तथा इन्द्रियज्ञान को "समनन्तर प्रत्यय" बनाकर योगिज्ञान नहीं होता । परन्तु पदार्थो की भावना के प्रकर्ष पर्यन्त से ज्ञान उत्पन्न होता है वह योगिज्ञान है ।
"समनन्तरप्रत्यय" शब्द स्वसंतानवर्ति उपादान ज्ञान में रुढि से प्रसिद्ध है। अर्थात् "समनन्तर प्रत्यय" शब्द का प्रयोग अपनी ही संतान में होनेवाला उपादानभूत पूर्वक्षण में रुढि से होता है। इसलिये हमारे जैसे लोगो के ज्ञान का साक्षात्कार करनेवाले योगिज्ञान में हमारा ज्ञान भिन्न संतानवर्ति होने के कारण "समनन्तर प्रत्यय” उपादानकारण नहीं बनता है । ( परन्तु हमारा ज्ञान तो योगिज्ञान में आलंबनभूत कारण बनता I इससे हमारा ज्ञान योगिज्ञान में समनन्तर प्रत्यय न बनकर " आलंबन प्रत्यय" ही बनता है ।)
सब "चित्त" और "चैत्तो" का स्वरुप जिसके द्वारा संवेदन किया जाता है वह स्वसंवेदन प्रत्यक्ष कहा जाता है । वस्तुमात्र को ग्रहण करनेवाले ज्ञान को 'चित्त' कहते है । चित्त में होनेवाले भावो को 'चैत्त' कहा जाता है। अर्थात् चैत्त यानी वस्तुका विशेष स्वरुप से ग्राहक ज्ञान सुख, दुःख और उपेक्षारुप ज्ञान | (चित्त और चैत्त धर्मो का स्वरुप आगे टिप्पणी में विस्तार से बताया गया है ।) वह चित्त और चैत के धर्मो का स्वरुप जिसके द्वारा संवेदन किया जाये वह स्वसंवेदन प्रत्यक्ष कहा जाता है। [ श्री दिड्नागने
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