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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - १०, बोद्धदर्शन
स्थिरस्थूलघटपटादिबाह्यवस्तुग्राहिणः सविकल्पकज्ञानस्य प्रत्यक्षतां निरस्यति, पुनः कीदृक्षं प्रत्यक्षम् अभ्रान्तम् “अतस्मिंस्तद्ग्रहो भ्रान्तिः ” [ ] इति वचनात् । नासद्भूत - वस्तुग्राहकं, किंतु यथावत्परस्परविविक्तक्षणक्षयिपरमाणुलक्षणस्वलक्षणपरिच्छेदकम् 1 अनेन निर्विकल्पकानां
भ्रान्ततैमिरिकादिज्ञानानां प्रत्यक्षतां प्रतिक्षिपति ।
टीकाका भावानुवाद :
प्रत्यक्ष और अनुमान में (नीचे बताये गये) प्रत्यक्ष का लक्षण जानना । अक्ष = इन्द्रियो को प्रतिगत आश्रित जो ज्ञान हो वह प्रत्यक्ष कहा जाता है । प्रश्न : यह प्रत्यक्ष किस प्रकार का है ? उत्तर : कल्पना से रहित है । शब्दसंसर्गवाली प्रतीति को कल्पना कहा जाता है। जिस ज्ञान में से कल्पना चली गई है, वह कल्पनापोढ = कल्पनारहित कहा जाता है ।
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शंका : आहिताग्न्यादिषु (सि. है . ३ । १ । १५३ ) सूत्र से बहुव्रीहि समास में "क्त” अंतवाले नामो का विकल्प से पूर्वनिपात होता है। इसलिये यहाँ भी "अपोढ", नाम "क्त" अंतवाला होने से पूर्वनिपात करके "अपोढकल्पनम्” प्रयोग हो सकता है या नहीं ?
समाधान : ‘“आहिताग्न्यादिषु" सूत्र में "वा" का निर्वचन होने से निपात वैकल्पिक है। इसलिये कल्पनापोढ को वैकल्पिक मानना चाहिए। अथवा आहिताग्न्यादि आकृति गणपाठ में 'कल्पनापोढ' रुप की गणना न होने से यह सि० है ० सूत्र उसको लागू नहीं पडेगा। (अथवा बहुव्रीहि समास न करके तृतीया तत्पुरुष समास करके इस तरह व्युत्पत्ति होगी ।) कल्पनया अपोढं ( रहितं) कल्पनापोढम् - कल्पना से रहित । अर्थात् नाम-जाति इत्यादि कल्पना से रहित । उसमें "यथा डित्थ" नाम कल्पना है। "यथा गौ " यह जाति कल्पना है। आदि शब्द से गुणकल्पना, क्रियाकल्पना और द्रव्यकल्पना लेना । उसमें ‘यथा शुक्ल' गुणकल्पना है । “यथा पाचक" यह क्रियाकल्पना है । "यथा दण्डी भूस्थो वा" यह द्रव्यकल्पना है। (कहने का आशय यह है कि कोई कल्पना नाम इच्छानुसार की हुई संज्ञा के अनुसार होती है । जैसे कि, कोई व्यक्ति का नाम व्यवहार के लिये "डित्थ" रखा जाता है, वह । जाति की अपेक्षा से प्रतीत होती कल्पना जातिकल्पना कही जाती है। जैसे कि, 'गौत्वं' जाति स्वरुप निमित्त को लेके प्रतीत होती गोरुप कल्पना । वैसे हि ‘यह शुक्ल है' यहाँ शुक्ल गुण के निमित्त से कल्पना होती है, उससे गुणकल्पना । 'यह पाचक है' यह कल्पना पाचनक्रिया की अपेक्षा से होती है। दंड आदि द्रव्यसंबंधी 'यह दण्डी है' या 'यह पृथ्वी पर रहा है' । ये दो कल्पनाएँ द्रव्यकल्पना है । इस प्रकार कल्पनाएं होती रहती है।) प्रत्यक्ष, ये सब कल्पनाओ से रहित है। क्योंकि प्रत्यक्ष शब्दरहित स्वलक्षणरुप अर्थ से उत्पन्न होता है। अर्थात् प्रत्यक्ष ऐसे स्वलक्षणरुप पदार्थ से उत्पन्न होता है कि, जो शब्दके संसर्ग से रहित है। कहा है कि.....
" न ह्यर्थे शब्दाः सन्ति, तदात्मनो वा येन तस्मिन् प्रतिभासमाने प्रतिभासेरन्” अर्थात् पदार्थ में शब्द नहीं होते है या पदार्थ शब्दस्वरुप (भी) नहीं है, कि जिससे पदार्थ प्रकाशित होने पर भी (नामादि) शब्द भी प्रकाशित हो जाय ।
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