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________________ ६८ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १०, बोद्धदर्शन से भिन्न प्रमाणो का अभाव है। इसलिये कहा है कि "प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमेय से अन्य प्रमेय का संभव नहीं है । इसलिये प्रमेय दो होने से प्रमाण भी दो ही है। यहाँ शब्द, उपमान, अर्थापत्ति और अभावादि प्रमाणो का निराकरण अथवा प्रत्यक्ष या अनुमान में अन्तर्भाव जिस प्रकार होता है, वह 'प्रमाणसमुच्चय' आदि बौद्ध ग्रंथो से या सन्मतितर्क इत्यादिक अन्यग्रंथो से जान लेना । ग्रंथगौरव के भय से यहाँ कहा नहीं है। इसलिये सिद्ध होता है कि - प्रत्यक्ष और अनुमान, दो ही प्रमाण है ॥९॥ अथ प्रत्यक्षलक्षणमाह : अब प्रत्यक्ष का लक्षण कहते है। (तथा अनुमानप्रमाण का भी लक्षण कहा जाता है।) (मू. श्लो.) प्रत्यक्ष अकल्पनापोढमभ्रान्तं तत्र बुध्यताम् । त्रिरूपाल्लिङ्गतो लिङ्गिज्ञानं त्वनुमानसंज्ञितम् ।।१०।। श्लोकार्थ : कल्पनापोढ अर्थात् निर्विकल्पक तथा भ्रान्तिरहित ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान कहा जाता है। तथा (सपक्षसत्त्व, पक्षधर्मत्व और विपक्षासत्त्व) ये तीन रुपवाले लिंग से लिंगी (साध्य) का ज्ञान हो उसका नाम अनुमान। व्याख्या-तत्र तयोः प्रत्यक्षानुमानयोर्मध्ये प्रत्यक्षं बुध्यतां ज्ञायताम् । तत्र प्रतिगतमक्षमिन्द्रियं प्रत्यक्षम् । कीदृशम् । कल्पनापोढम् । शब्दसंसर्गवती प्रतीतिः कल्पना । कल्पना B-8अपोढा अपेता यस्मात्तत् कल्पनापोढम् । ननु बहुव्रीहो निष्ठान्तं पूर्वं निपतति । ततोऽपोढकल्पनमिति स्यात न वा ? आहिताग्न्यादिष्वति वा वचनात्, आहिताग्न्यादेश्चाकृतिगणत्वान्न पूर्वनिपातः । कल्पनया वापोढं रहितं कल्पनापोढम् । नामजात्यादिकल्पनारहितमित्यर्थः । तत्र नामकल्पना यथा डित्थ इति । जातिकल्पना यथा गौरिति । आदिशब्दाद्गुणक्रियाद्रव्यपरिग्रहः । तत्र गुणकल्पना यथा शुक्ल इति । क्रियाकल्पना यथा पाचक इति । द्रव्यकल्पना यथा दण्डी भूस्थो वेति । आभिः कल्पनाभी रहितं, शब्दरहितस्वलक्षणजन्मत्वात्प्रत्यक्षस्य । उक्तं च “न ह्यर्थे शब्दाः सन्ति तदात्मानो वा, येन तस्मिन् प्रतिभासमाने प्रतिभासेरन्” [उघृतमिदम् - न्याय० प्र० वृ० पृ० ३५] इत्यादि । एतेन (अ) "प्रत्यक्षं कल्पनापोडं नामजात्याद्यसंयुतम्" | प्र० समु० १/३ ॥ "तत्र प्रत्यक्षं कल्पनाऽपोढमभ्रान्तम ॥ न्याबि०१/४ ॥ "प्रत्यक्षं कल्पनापोढभ्रान्तमभिलापिनी प्रतीतिः कल्पना क्लुप्तिहेतत्वाद्यात्मिका न तु ।" [तत्त्व सं० श्लो० १२१४] (ब) "अभिलापसंसर्गयोग्य, प्रतिभासा प्रतीतिः कल्पना" | न्यायबि० १/५ ।। (क) "अष्ट स० पृ० ११८ / सिद्धिवि० टी० पृ० ९० । (B-8) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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