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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ९, बोद्धदर्शन "एव" कार अयोगव्यवच्छेदक बनता है। अर्थात् वह जिसके साथ जुडा हुआ हो उसके अभाव का व्यवच्छेद करके स्वका सद्भाव को निश्चित करता है। जब आप 'यहा दो ही है, उसमें अयोगव्यवच्छेदक "एव" कार का अर्थ "एक या तीन नहीं है" इस प्रकार का अन्ययोगव्यवच्छेदकबोधक अर्थ करते हो। इस प्रकार से अन्ययोगव्यवच्छेदक (अन्य भिन्न विशेषणो के योग (संबंध) का व्यवच्छेद) मान लेने से, आपत्ति यह आयेगी कि 'चैत्र धनुर्धर ही है', उसमें अन्ययोगव्यवच्छेदक "एव" कार का भी 'चैत्र में धनुर्धरत्व ही है' । अन्य शूरता, औदार्य, धैर्य आदि गुण नहीं है। ऐसा अन्य गुणो के निषेध का अर्थ प्राप्त होगा। इसलिये शूरता आदि गुणो के बिना धनुर्धरत्व भी निरर्थक सिद्ध होगा।) समाधान : आपकी शंका योग्य नहीं है। क्योंकि सर्ववाक्य सावधारण होते है। इस न्याय में जिसकी आशंका हो उसके व्यवच्छेद के लिये है। वाक्य का प्रयोग पर के लिए कहा जाता है। अर्थात् वाक्य का प्रयोग दूसरो को समजाने के लिये किया जाता है। इसलिये दूसरे के व्यामोह से जो धर्मो की आशंका होती है, उसका व्यवच्छेद किया जाता है। जैसे कि, 'चैत्र धनुर्धर' में दूसरो के द्वारा चैत्र में धनुर्धरत्व के अभाव में ही आशंका की गई है। वह दूसरो की आशंका का व्यवच्छेद ही ‘एव' कार से होता है। अन्य धर्मो का नहीं। यहां प्रमाण की संख्या के विषय में चार्वाक, सांख्य इत्यादि एक और अनेक प्रकार से सम्यग् ज्ञान कहते है। (और इसलिये सम्यग्ज्ञान एक प्रकार से तथा अनेक प्रकार से होने से प्रमाण के भी एक या अनेक प्रकार होंगे।) इससे नियत दो प्रकार का सम्यग्ज्ञान कहा जाने से एक या अनेक प्रकार के सम्यग्ज्ञान का निषेध होता है। ___ एवं चायमेवकारो विशेषणेन विशेष्येण क्रियया च सह भाष्यमाणः क्रमेणायोगान्ययोगात्यन्तायोगव्यवच्छेदकारित्वात्रिधा भवति यद्विनिश्चयः- “अयोगं योगमपरैरत्यन्तायोगमेव च । व्यवच्छिनत्ति धर्मस्य निपातो व्यतिरेचकः ।।१ ।।” निपात एवकारः, व्यतिरेचको निवर्तकः-“विशेषणविशेष्याभ्यां क्रियया यः सहोदितः । विवक्षातोऽप्रयोगेऽपि तस्यार्थोऽयं प्रतीयते ।।२।।” व्यवच्छेदफलं वाक्यं यतश्चैत्रो धनुर्धरः । पार्थो धनुर्धरो नीलं सरोजमिति वा यथा ।।३ ।।” [प्र० वा० ४/१९०-९२] सम्यग्ज्ञानस्य च द्वैविध्य प्रत्यक्षपरोक्षविषयद्वैविध्यादवसेयम् । यतोऽत्र प्रत्यक्षविषयादन्यः सर्वोऽपि परोक्षो विषयः । ततो विषयद्वैविध्यात्तद्ग्राहके सम्यग्ज्ञाने अपि द्वे एव भवतो न न्यूनाधिके । तत्र यत्परोक्षार्थविषयं सम्यग्ज्ञानं, तत्स्वसाध्येन धर्मिणा च संबद्धादन्यतः सकाशात्सामान्येनाकारेण परोक्षार्थस्य प्रतिपत्तिरूपं, ततस्तदनुमानेऽन्तर्भूतमिति । टीकाका भावानुवाद : इस प्रकार "एव" कार विशेषण, विशेष्य और क्रियापद के साथ में कह जाने से (संयोग होने से) अनुक्रम में अयोग, अन्ययोग और अत्यन्तायोग का व्यवच्छेद करता है। इससे “एव" कारका तीन प्रकार से निश्चय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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