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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - ९, बोद्धदर्शन
होता है। कहा है कि
“व्यतिरेचक (अर्थात् व्यावृत्ति करनेवाला) निपात = "एव" कार (विशेषण के साथ प्रयुजित होकर) अयोग का, (विशेष्य के साथ प्रयुजित होकर) अन्ययोग का तथा (क्रियापद के साथ प्रयुजित होकर) अत्यंतायोग का व्यवच्छेद करता है। "
(यद्यपि वाक्यो में 'एव' कार का) प्रयोग न हो, फिर भी उसका यह अर्थ विशेषण, विशेष्य और क्रिया के साथ कही गई विवक्षा से प्रतीत होता ही है । क्योंकि सर्ववाक्य व्यावृत्ति के फलवाले होते है। अर्थात् सर्व वाक्य व्यवच्छेद करनेवाले होते है। (जैसे कि) (१) "चैत्रो धनुर्धर" में "एव" कार प्रयोग न होने पर भी विवक्षा से ‘धनुर्धर' विशेषण के साथ वह जुडा हुआ ही है। चैत्र में धनुर्धरत्व का अभाव (अयोग) का व्यवच्छेद यह “एव” कार का फल है । (२) "पार्थो धनुर्धरः " प्रयोग में "एव" कार न होने पर भी विवक्षा से “पार्थ” विशेष्य के साथ जुडा हुआ ही है। उससे अन्ययोग का व्यवच्छेद होता है। (अर्थात् "पार्थ ही धनुर्धर है. " प्रयोग में पार्थ (अर्जुन) सिवा अन्य में धनुर्धरत्व का अयोग करना वह "एव" कार का फल है। (यहां याद रखना कि 'धनुर्धर' तो दूसरे बहोत होंगे, फिर भी अर्जुन में रहा हुआ विशिष्ट धनुर्धरत्व ही अर्जुन का पार्थ नाम रखने में निमित्त बना है। अर्थात् अर्जुन में धनुर्धरत्व का तादात्म्यसंबंध बताया है । इसलिए अर्जुन के सिवा अन्य में तादात्म्य संबंध से धनुर्धरत्व का अयोग कहने में दोष नहीं है ।) (३) "नीलं सरोजम् अस्ति" में "एव" कार प्रयोग न होने पर भी विवक्षा से " अस्ति" के साथ “एव" कार जुडा हुआ ही है । इससे अत्यन्त अयोग का व्यवच्छेद होता है । अर्थात् "कमल नील होते ही है" यहां "अस्ति" के साथ जुडा हुआ "एव" कार कमल में नीलत्व के अत्यन्त अयोग का व्यवच्छेद करके कमल पूर्णरुप से नील होते है। ऐसा क्रिया का अवधारण करता है ।
विषय, प्रत्यक्ष और परोक्ष इस प्रकार दो प्रकार के होने से सम्यग्ज्ञान भी दो प्रकार का जानना । यहाँ प्रत्यक्षविषय से अन्य सब भी परोक्षविषय जानना । इसलिये (प्रत्यक्ष और परोक्ष इस तरह) दो प्रकार के विषय होने से, उस दो प्रकार के विषयो का ग्राहक सम्यग्ज्ञान भी दो प्रकार के है । परन्तु न्यूनाधिक नहीं है। उसमें जो परोक्ष अर्थविषयक सम्यग्ज्ञान है उसका अन्तर्भाव अनुमान में होता है, क्योंकि वह सम्यग्ज्ञान अपने साध्यभूत पदार्थ के साथ अविनाभाव रखनेवाला (साध्य के साथ अविनाभाव संबंध रखनेवाला) तथा नियतधर्मी में विद्यमान लिंग द्वारा परोक्ष अर्थ का सामान्याकारक (अविशद) ज्ञान करता है। इसलिये अनुमान में समाविष्ट होता है । कहने का मतलब यह है कि, लिंग द्वारा परोक्ष अर्थ का सामान्याकारक ज्ञान होता है, इसलिए उसका अन्तर्भाव अनुमान में होता है । (यहाँ यह याद रखना कि बौद्धमत में क्षणिक परमाणुरुप विशेष-स्वलक्षण (अर्थक्रियायुक्त विशेष) प्रत्यक्ष का विषय बनता है तथा बुद्धि-प्रतिबिंबित अन्यापोहात्मक सामान्य अनुमान का विषय बनता है । इस प्रकार विषय की द्विविधता के कारण प्रमाण की द्विविधता का अनुमान किया जाता है । प्रत्यक्ष सामान्य पदार्थ को तथा अनुमान स्वलक्षणरुप विशेषपदार्थ को विषय बना सकता नहीं है ।)
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