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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ९, बोद्धदर्शन
(मूल श्लो०) प्रमाणे द्वे च विज्ञेये तथा सौगतदर्शने ।
प्रत्यक्षमनुमानं च सम्यग्ज्ञानं द्विधा* यतः ।।९।। __ श्लोकार्थ : बौद्ध दर्शन में दो प्रमाण जानना । एक प्रत्यक्ष और दूसरा अनुमान, क्योंकि सम्यग्ज्ञान दो प्रकार से है। (इसलिए प्रमाण भी दो ही हो सकते है। अधिक नहीं ।)
व्याख्या-तथाशब्दः प्रागुक्ततत्त्वापेक्षया समुञ्चये, चशब्दोऽवधारणे, ततोऽयमर्थः । सौगतदर्शने द्वे एव प्रमाणे विज्ञेये, न पुनरेकं त्रीणि चत्वारि पञ्च षड्वा प्रमाणानि । एतेन चार्वाकसांख्यादिपरिकल्पितं प्रमाणसंख्यान्तरं बौद्धा न मन्यन्त इत्यावेदितं भवति । ते द्वे के प्रमाणे इत्याह 'प्रत्यक्षमनुमानं च' कुतो द्वे एव प्रमाणे इत्याह । सम्यगविपरीतं विसंवादरहितमिति यावज्ज्ञानं यतो हेतोर्द्विधा । सर्वं वाक्यं सावधारणमिति न्यायाद्विधैव न त्वेकधा त्रिधा वेति । अत्र केचिदाहुः-यथात्र द्विधेत्युक्ते हि द्विधैव न त्वेकधा त्रिधा वेत्येवमन्ययोगव्यवच्छेदः, तथा चैत्रो धनुर्धर इत्यादिष्वपि चैत्रस्य धनुर्धरत्वमेव स्यान्न तुशौर्योदार्यधैर्यादयः । तदयुक्तं यतः सर्वं वाक्यं सावधारणमिति न्यायेऽप्याशङ्कितस्यैव व्यवच्छेदः । परार्थं हि वाक्यमभिधीयते । यदेव च परेण व्यामोहादाशङ्कितं तस्यैव व्यवच्छेदः । चैत्रो धनुर्धर इत्यादौ च चैत्रस्य धनुर्धरत्वायोग एव परैराशङ्कित इति तस्यैव व्यवच्छेदो नान्यधर्मस्य । इह चार्वाकसांख्यादय ऐकध्यमनेकधा च सम्यग्ज्ञानमाहुः, अतो नियतद्वैविध्यप्रदर्शनेनैकत्वबहुत्वे सम्यग्ज्ञानस्य प्रतिक्षिपति । टीकाका भावानुवाद : श्लोक में "तथा" शब्द पहले कहे गये तत्त्व के साथ समुच्चय करने के लिए और "च" शब्द अवधारणार्थक है। इसलिये यह अर्थ होगा - सौगतदर्शन में दो ही प्रमाण जानना । परन्तु एक, तीन, चार, पांच या छ: नहीं । इस कथन से चार्वाक सांख्य आदि दर्शनो के द्वारा प्ररुपित हुए दो से अधिक दूसरे प्रमाण बौद्धोको मान्य नहीं है, यह सूचित होता है। प्रश्न : वे दो प्रमाण कौन से है ? उत्तर : प्रत्यक्ष और अनुमान, ये दो प्रमाण है। प्रश्न : किस कारण से दो ही प्रमाण है ? उत्तर : सम्यग् अर्थात् अविपरित = विसंवादरहित ज्ञान दो होने से प्रमाण भी दो प्रकार के ही है। "सर्ववाक्य सावधारण अर्थात् निश्चयात्मक होते है" इस न्याय से प्रमाण दो ही है। न तो एक प्रकार से या न तो तीन प्रकार से ।
शंका : जैसे यहां "दो प्रकार है।" इस अनुसार कहते हुओ प्रमाण दो ही है। परन्तु एक प्रकार या तीन प्रकार से नहीं है। इस अनुसार अन्य के योग का व्यवच्छेद किया है। उस प्रकार "चैत्र धनुर्धर है" इसका अर्थ भी (अन्ययोगव्यवच्छेद के कारण) "चैत्र धनुर्धर ही है, उसमें शौर्य, औदार्य, धैर्य इत्यादि नहीं है।" ऐसा ही होना चाहिये । (कहने का मतलब यह है कि विशेषण के साथ "एव" कार का प्रयोग हो, तब अ. प्रत्यक्षमनुमानं च प्रमाणं हि द्विलक्षणम् । प्रमेयं तत्प्रयोगार्थं न प्रमाणान्तरं भवेत् ।। प्र. समु० १/२ ।। द्विविधं सम्यग्ज्ञानं ।
प्रत्यक्षमनुमानं चेति ।। [न्यायबि० १/२,३]
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