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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ८, बोद्धदर्शन ५७ प्रत्यक्ष और अनुमान ही अपने विषय के उपदर्शक है। उनके सिवा ज्ञान स्वविषय का उपदर्शक नहीं है । अर्थात् प्रत्यक्ष और अनुमान अपने विषय का यथार्थ ज्ञान कराता है। उसके सिवा दूसरा कोई ज्ञान नहीं है, जो वस्तु का यथार्थज्ञान करा सके। इससे प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो ही लक्षण के लिये योग्य है। अर्थात् प्रत्यक्ष-अनुमान स्वविषय का यथार्थ उपदर्शक होने के कारण लक्षण के लिये योग्य है। उपरांत अनुमान और प्रत्यक्ष दोनो का भी (सामान्य) लक्षण अविसंवादिकत्व है । प्रत्यक्ष अर्थक्रियासाधक (स्वलक्षणस्वरुप) वस्तु को साक्षात् विषय करके, उसका उपदर्शक बनता है और उससे उसमें प्रापकत्व आता है। __ (कहने का आशय यह है कि, अर्थक्रिया के योग से मालूम होती वस्तु को साक्षात् विषय बनाकर प्रत्यक्ष उस वस्तु का उपदर्शक बनता है। उससे उसमें प्रापकत्व आता है।) परन्तु अनुमान साक्षात् लिंग का दर्शन करके, उसके साथ अविनाभाव से (अव्यभिचरित रुप से) रहे हुओ लिंगी का अध्यवसाय करके लिंगी का यथार्थ प्रदर्शन कराता है। (अर्थात् अनुमान पर्वत के उपर दीखते साक्षात् धूम लिंग का दर्शन करके, वह धूम (लिंग) के अविनाभाव से रहे हुओ (अग्निरुप) लिंगी को बताने का काम करता है और वही अनुमान का प्रापकत्व है।) इस अनुसार प्रत्यक्ष और अनुमान स्वविषय का उपदर्शक है, और इसलिये प्रापक भी है । अर्थात् स्वविषयोपदर्शकरुप प्रापक है। यानी कि प्रत्यक्ष और अनुमान दोनो में स्वविषयोपदर्शकरुप प्रापकत्व है। [शंका : आपकी मान्यता अनुसार पदार्थ प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है। इससे प्रत्यक्ष से जो अर्थक्षण ग्राह्य होती है अर्थात् प्रत्यक्ष का विषय अर्थक्षण था, वह तो नष्ट हो गया होने से प्रवृत्ति काल में रहेगी ही नहि। इसलिये वह अर्थक्षण को प्राप्त कराके किस प्रकार उपदर्शक (प्रापक) बनेगा? और उससे किस प्रकार वे अविसंवादक बनेगा ? उपरांत उससे प्रत्यक्ष में प्रापकता और प्रापकतामूलक प्रमाणता भी किस प्रकार आयेगी?] समाधान : यद्यपि प्रत्यक्ष (निर्विकल्पक प्रत्यक्ष) का साक्षात् ग्राह्य विषय होनेवाला पदार्थ क्षणस्थायी है और वह द्वितीयक्षण में नष्ट हो जाने से दूसरी क्षण में प्राप्त नहीं होता । तो भी पदार्थ की जो संतान है वह अध्यवसेय = निश्चय से विषय बनती है। अर्थात् प्रत्यक्ष से उत्पन्न होनेवाला विकल्पज्ञान, उस पदार्थ की संतान को विषय बनाता है और उस संतानरुप विषय प्रवृत्ति के बाद प्राप्त होता है। इससे संतान को विषय बनाकर अर्थ को प्रदर्शित करने स्वरुप प्रापकत्व प्रत्यक्ष का प्रामाण्य है। अर्थात् प्रत्यक्ष संतान को विषय बनाकर अर्थ का उपदर्शकरुप प्रापक है। इसलिये प्रत्यक्ष में संतानविषयोपदर्शक रुप प्रापकत्व है और वही प्रत्यक्ष का प्रामाण्य है। संक्षिप्त में प्रत्यक्ष की प्रमाणता संतान को विषय बनाने द्वारा अर्थ को प्रदर्शित करना वह है। (इससे प्रत्यक्ष में तत्क्षणवर्ती स्वलक्षणपदार्थ की दृष्टि से प्रापकता न बनेगी, परंतु संतान की दृष्टि से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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