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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ८, बोद्धदर्शन
प्रापकता है ही । उपरांत अनुमानात्मक विकल्प लिंगदर्शन से होता है । इससे अनुमान विकल्पोका ग्राह्यविषय-विकल्प्य स्वाकार होता है, बाह्यार्थ नहीं। कहने का मतलब यह है कि.... अनुमान विकल्पका विषय तो सामान्य पदार्थ अर्थात् विकल्प बुद्धि में प्रतिबिंबित स्वाकार होता है। परन्तु प्राप्यविषय तो बाह्यस्वलक्षणरुप ही होता है और यह प्राप्य ऐसा बाह्य स्वलक्षण का आलंबनभूत स्वीकार के साथ "मैने जिसका अनुमान किया था उसको ही प्राप्त कर रहा हूं।" ऐसा अभेद अध्यवसाय होता है। इस अभेद का अध्यवसाय करके प्रवृत्ति करने से अर्थ प्रापकता सिद्ध हो जाती है। इससे अनुमान में भी प्राप्तविषय की अपेक्षा से स्वविषयोपदर्शनरुप प्रापकता और प्रापकतामूलक प्रामाण्य भी सिद्ध होता है। इसलिए अनुमान भी अविसंवादि होने से प्रमाण है।) इसलिये कहा है कि....
"प्रत्यक्ष और अनुमान के द्वारा पदार्थ को जानकर प्रवृत्ति करनेवाले पुरुष की अर्थक्रिया में (कोई भी) विसंवाद नहीं रहता।"
प्राप्त होनेवाली वस्तु नियतदेश, काल और आकार में ही प्राप्त होती है। अर्थात् जो देश में, जो काल में, जो आकारवाली वस्तु का प्रतिभास होता हो, वह जब उस देस, उस काल और उस आकार में उपलब्ध हो, तो ही यथार्थ अर्थप्रापकता कहा जा सकता है। इस प्रकार यथार्थ वस्तु के प्रदर्शक प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाणकक्षा में आते है। अर्थात् प्रत्यक्ष और अनुमान दो में ही प्रामाण्य है। दूसरे ज्ञानो में प्रामाण्य नहीं है। इसलिये (प्रत्यक्ष और अनुमान के सिवा दूसरे मिथ्याज्ञान द्वारा अथवा रोग से अभिभूत आँख द्वारा प्राप्त होते ज्ञान द्वारा) पीतशंखादि को ग्रहण करनेवाले ज्ञानो में प्रापकत्व होने पर भी वे ज्ञानो में प्रामाण्य नहीं है। क्योंकि वे पीतशंखादि को ग्रहण करनेवाले ज्ञानो में यथार्थ अर्थप्रदर्शित करने स्वरुप प्रापकत्व नहीं है। (कहने का आशय यह है कि शंख सफेद होने पर भी अभिभूत रोग से आँख द्वारा पीला दिखाता है। यहाँ वह ज्ञान अर्थ का प्रापक बना, परन्तु शंख ने खुद जो श्वेत रंग प्रदर्शित किया था, वह श्वेतरंग का यथार्थ रुप से प्रदर्शित करनेवाला ज्ञान वह नहीं बना। अर्थात् शंख का विविक्षित ज्ञान न होने से, वह ज्ञान में यथार्थ अर्थप्रदर्शित करने स्वरुप प्रापकत्व नहीं है। इसलिये प्रामाण्य भी नहीं है।) उपरांत प्रत्यक्ष और अनुमान के सिवा दूसरे ज्ञानो में वस्तु जो देश की, जो काल में और जो आकारवाली उसके द्वारा बताई गई थी, वही देश में, वही काल में, वही आकारवाली उपलब्ध नहीं होती। और जो देश-काल-आकारवाली वस्तु प्राप्त की जाती है उस देश-काल-आकार में नहीं बताई गई होती । (कहने का मतलब यह है कि जो देस में, जिस काल में, जिस आकारवाला शंख था, वह श्वेत प्रदर्शित होने पर भी (पीलीये की बिमारी से अभिभूत आंखवाले को) उससे विपरीत पीत है, इस प्रकार से उपलब्ध होता है । तथा वर्तमान में जो पीताकार है, वह पहले पीताकाररुप में प्रदर्शित नहीं हुआ था। इसलिए "पीतशंखः" ज्ञान यथार्थ नहीं है।) उपरांत देशादि के भेद से वस्तु का भेद निश्चय से होता है। इस तरह प्रत्यक्ष और अनुमान के सिवा दूसरे ज्ञानो में प्रदर्शित अर्थ प्रापकता नहीं है। और इसलिये वे ज्ञानो में प्रामाण्य भी नहीं है। इसी तरह से प्रत्यक्ष-अनुमान प्रमाण से भिन्न शब्दजन्य आगमज्ञान भी प्रदर्शित अर्थ का प्रापक बनकर प्रमाण नहीं हो सकता। क्योंकि, शब्द अनियत देश काल और आकारवाली वस्तु का प्रतिपादन करता है। जब वस्तु किसी न किसी देश,
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