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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - ७, बोद्धदर्शन
परोऽयं च परकीय इत्यादि संबन्धो द्रष्टव्यः । स एवाख्या नाम यस्य स आत्मात्मीयभावाख्यः । अयं भावः-आत्मात्मीयसंबन्धेन परपरकीयादिसंबन्धेन वा यतो रागद्वेषादयः समुद्भवन्ति सः समुदयो नाम तत्त्वं बौद्धमत उदाहृतः कथितः । अत्रोत्तरार्धे सप्तनवाक्षरपादद्वये छन्दान्तरसद्भावाच्छन्दोभङ्गदोषो न चिन्त्यः, आर्षत्वात्प्रस्तुतशास्त्रस्य ।।६।। ____टीकाका भावानुवाद : जिस कारण से लोक में रागद्वेषादिदोषो का समस्तगण उत्पन्न होता है। (वह कारण समुदय है।) प्रश्न : वह रागादिभावो का समूह किस प्रकार का है ?
उत्तर : आत्मा-आत्मीयस्वरुप है। अर्थात् आत्मा यानी कि "मैं" और आत्मीय यानी कि "मेरा" यह दोनो के भाव वह आत्मा-आत्मीय भाव कहा जाता है। अर्थात् 'यह मैं हूं' और "यह मेरा है।" ऐसा भावार्थ जानना । उपलक्षण से यह पर है और यह पराया है। इत्यादि संबंध भी करना । कहने का मतलब यह है कि मैं और मेरा तथा पर-परकीय संबंध से जो रागद्वेषादि दोष पेदा होते है वह "समुदय" नाम का तत्त्व बौद्धमत में कहा गया है।
यहां श्लोक के उतरार्ध में एक पद में सात अक्षर है, और एक पद में नौ अक्षर है, फिर भी छन्दभंग का दोष नहीं जानना। क्योंकि यह शास्त्र ऋषिवर्णित होने से आर्ष है। इसलिये सात-नौ अक्षरवाले दूसरे छन्द का सद्भाव प्राचीन परंपरा में होगा, ऐसा मान लेना । ॥६।।
अथ दुःखसमुदयतत्त्वयोः संसारप्रवृत्तिनिमित्तयोविपक्षभूते मार्गनिरोधतत्त्वे प्रपञ्चयन्नाह__ अब संसार की प्रवृत्ति के निमित्तभूत दुःख और समुदयतत्त्व के विपक्षभूत मार्ग और निरोध तत्त्व का विस्तार करते हुए कहते है कि.... (मूल श्लो०) क्षणिकाः सर्वसंस्कारा इत्येवं वासना यका ।
स A-75मार्ग इह विज्ञेयो 4-7निरोधो मोक्ष उच्यते ।।७।। श्लोकार्थ : संसार के सर्व संस्कार क्षणिक है । इस प्रकार की वासना को मार्गतत्त्व तथा रागादि वासनाओ के सर्वथा नाश को निरोध अर्थात् मोक्ष कहा जाता है।
परमनिकृष्टः कालः क्षणः, तत्र भवाः क्षणिकः A-77क्षणमात्रावस्थितय A-78इत्यर्थः । सर्वे च ते संस्काराश्च पदार्थाः सर्वसंस्काराः क्षणविनश्वराः सर्वे पदार्था इत्यर्थः । तथा च बौद्धा अभिदधति । A-7"स्वकारणेभ्यः पदार्थ उत्पद्यमानः किं विनश्वरस्वभाव उत्पद्यतेऽविनश्वरस्वभावो वा । यद्यविनश्वरस्वभावः, तदा तद्व्यापिकायाः क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाया अभावात्पदार्थस्यापि A (१) “अर्थक्रियासमर्थं यत् तदत्र परमार्थसत् । अन्यत् संवृत्तिसत् प्रोक्तं; ते स्वसामान्यलक्षणे ।।" [प्र. वा. २/३]
(२) यथा यत् सत् तत् क्षणिकमेव, अक्षणिकत्वेऽर्थक्रियाविरोधात् तल्लक्षणवस्तुत्वं हीयते । [हेतु बि. पृ. ५४] (A-75-76-77-78-79) - तु० पा० प्र० प० ।
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