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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - ५, बौद्धदर्शन
एव वेदितव्याः, न पुनर्नित्याः कियत्कालावस्थायिनो वा । एतच्च “ क्षणिकाः सर्वसंस्कारा” (का० ७) इत्यत्र दर्शयिष्यते ।।५॥
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टीकाका भावानुवाद :
जिन प्रत्ययो में शब्दो के प्रवृत्तिनिमित्तो की उद्ग्रहणा अर्थात् योजना हो जाती है, वे सविकल्पक प्रत्ययो को संज्ञास्कन्ध कहा जाता है। गौ, अश्व इत्यादि संज्ञाएं है। (वे संज्ञाएं वस्तु के सामान्य धर्म को निमित्त बनाकर व्यवहार में आती है।) जैसे कि, गौ संज्ञा " गोत्व" स्वरुप प्रवृत्तिनिमित्त (सामान्यधर्म) जहाँ जहाँ होगा, वहाँ वहाँ वह संज्ञा लागू पडेगी। (अर्थात् "गौ" यह संज्ञा है और "गोत्व" प्रवृत्तिनिमित्त है। यह संज्ञा और प्रवृत्तिनिमित्तो के उद्ग्राहक प्रत्यय को संज्ञास्कन्ध कहा जाता है। उपरांत "गोत्व" आदि सामान्य, “गौ” आदि संज्ञाओ का प्रवृत्तिनिमित्त बनता है।)
इस प्रकार गौ आदि संज्ञाओ का गोत्वादि प्रवृत्तिनिमित्तो के साथ योजना करनेवाले सविकल्पक प्रत्यय को संज्ञास्कन्ध कहा जाता है । अर्थात् नाम, जाति इत्यादिकी योजना करके "यह गोत्वविशिष्ट गौ है " "अश्वत्वविशिष्ट अश्व है" इत्यादि व्यवहार में कारणरुप सविकल्पकज्ञान संज्ञास्कन्ध कहलाता है ।
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पुण्य-पाप आदि के समुदाय को संस्कारस्कन्ध कहा जाता है। जो संस्कार के उदय से पहले महसूस किये गये विषयो में स्मरणादि उत्पन्न होता है । आदि पद से प्रत्यभिज्ञान इत्यादि जानना ।
(कहने का मतलब यह है कि, स्मृति के कारणभूत और अनुभवजन्य मानसिक प्रवृत्ति को संस्कार कहा जाता है ।)
पृथ्वी आदि चार धातुएं तथा रुपादि विषय रुपस्कन्ध कहे जाते है । वे पांच स्कन्ध ही संसारिजीवो का दुःख है। ये पांच (३२)स्कन्धो से अतिरिक्त सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, ज्ञान के आधारभूत आत्मा नाम का कोई पदार्थ प्रत्यक्ष से ज्ञात नहीं होता है ।
अनुमान से भी ( स्कन्धो से अतिरिक्त) आत्मा नामका पदार्थ नहीं मालूम होता, क्योंकि आत्मा को ग्रहण करनेवाले अव्यभिचरितलिंग का ही अभाव है। तथा प्रत्यक्ष और अनुमान से अतिरिक्त वस्तु को सिद्ध (३२) नाम - जात्यादि योजनारहित निर्विकल्पक ज्ञान "विज्ञान" है। नाम जात्यादि योजनासहित सविकल्पक ज्ञान "संज्ञा" है। अर्थात् पदार्थ के साक्षात्कार को भी संज्ञा कहा जाता है। जो वस्तु में गुरुत्व हो और स्थान रोकती हो उसे वस्तु का रुप कहा जाता है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और तज्जन्य शरीर रुप कहा जाता है । रुप से विरुद्धधर्मो को धारण करनेवाला अर्थात् गुरु न हो और स्थान नहीं रोकता उस द्रव्य "नाम" कहा जाता है। नाम अर्थात् मन और मानसिक प्रवृत्तियाँ । बौद्धमत अनुसार आत्मा नाम-रुपात्मक है, अर्थात् शरीर, मन, भौतिक तथा मानसिक प्रवृत्तिओ के समुच्चय स्वरुप है । परन्तु स्वतन्त्र चेतना स्वरुप या चैतन्य का अधिष्ठाता नहीं है ।
दुःख सत्य की व्याख्या करते हुये गौतमबुद्धने कहा है कि पांचो स्कन्ध जब व्यक्ति की तृष्णा का विषय बनकर पास आते है तब उसे ही उपादान स्कन्ध कहा जाता है। ये पांचो उपादानस्कन्ध दुःख स्वरुप है ।
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