________________
षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ५, बौद्धदर्शन
उत्तर : एक स्थान से दूसरे स्थान पे अथवा एक भव से दूसरे भव में सरकता है = जाता है इसे संसारि कहा जाता है । अचेतन या सचेतन परमाणु के समूहविशेष को स्कंध कहते है। वे स्कंध पांच कहे गये है। (वे पांच स्कंध संसारि जीव का दुःख है।)
"सर्वं हि वाक्यं सावधारणमामनन्ति" अर्थात् सर्ववाक्य सावधारण माने गये है। अर्थात् वाक्य का अवधारणपूर्वक ही प्रयोग होता है। इस न्याय से श्लोक में "तेच पञ्च प्रकीर्तिताः" वाक्य में "एव" कार न होने पर भी “पञ्चैव प्रकीर्तिताः = आख्याता" इस प्रकार समज लेना। यानी कि पांच ही स्कंध है। परन्तु उससे अपर आत्मा नाम का कोई स्कंध नहीं है।
प्रश्न : वे स्कन्ध कौन से है ? उत्तर : विज्ञानस्कन्ध, वेदनास्कन्ध, संज्ञास्कन्ध, संस्कारस्कन्ध और रुपस्कन्ध, ये पांच स्कन्ध है।
उसमें रुपविज्ञान, रसविज्ञान, स्पर्शविज्ञान, गंधविज्ञान और शब्दविज्ञान विषयक निर्विकल्पक ज्ञान को विज्ञानस्कन्ध कहते है।
निर्विकल्पक ज्ञान का स्वरुप इस अनुसार जानना । सबसे पहले "यह है" इस प्रकार का निर्विकल्पक आलोचनात्मक ज्ञान होता है । वह मूकबालकादिके विज्ञान की तरह शुद्धवस्तु से उत्पन्न होता है।
सुख, दुःख या असुखदुःख (सुख-दुःख के अभावस्वरुप उदासीनता) ये तीन वेदनास्कन्ध है। वेदना पूर्व में (पहले) किये हुए कर्म के विपाक से होती है। (उसकी पुष्टि के लिये कहते है कि....) कभी सुगत भिक्षा के लिए घूम रहे थे, तब उनके पैर में कांटा लगा, उस समय उन्हों ने कहा कि.... ___"हे भिक्षुओ ! इस कल्प से (इस भवसे) पहले के ९१ कल्प में (भवमें) शक्ति से (छुरीसे) मैंने पुरुष को मारा था । उस कर्म के विपाक से मैं पैर में वींधा गया हूं।" (इससे सिद्ध होता है कि पूर्वसञ्चित कर्म के विपाक से वेदना होती है।)
संज्ञानिमित्तोद्ग्रहणात्मकः प्रत्ययः संज्ञास्कन्धःA-72 । तत्र संज्ञा गौरित्यादिका । गोत्वादिकं च तत्प्रतिपत्ति(प्रवृत्ति)निमित्तम् । तयोरुद्ग्रहणा योजना, तदात्मकः प्रत्ययो नामजात्यादियोजनात्मकं सविकल्पकं ज्ञानं संज्ञास्कन्ध इत्यर्थः । पुण्यापुण्यादिधर्मसमुदायः संस्कारस्कन्धःA-73, यस्य संस्कारस्य प्रबोधात्पूर्वानुभूते विषये स्मरणादि समुत्पद्यते । पृथिवीधात्वादयो रूपादयश्च A-7+रूपस्कन्धः । न चैतेभ्यो विज्ञानादिभ्यो व्यतिरिक्तः कश्चनात्माख्य:B-2 पदार्थः सुखदुःखेच्छाद्वेषज्ञानाधारभूतोऽध्यक्षेणावसीयते । नाप्यनुमानेन, तदव्यभिचारिलिङ्गग्रहणाभावात् । न च प्रत्यक्षानुमानव्यतिरिक्तमविसंवादि प्रमाणान्तरमस्तीति । ते च पञ्च स्कन्धाः क्षणमात्रावस्थायिन (A-72-73-74) - तु० पा० प्र० प० । (B-2) - तु० पा० प्र० प० ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org