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________________ ३४ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १ (२९)इत्यादि अनेकवादि है। उनका स्वरुप पू.आ.श्री हरिभद्रसूरि महाराजा विरचित लोकतत्त्वनिर्णय ग्रंथ से जानना । (जो हमने टिप्पणी ८ से २९ में रखा है।) __ एवं सर्वगतादिजीवस्वरूपे ज्योतिश्चक्रादिचरस्वरूपे च नैके विप्रतिपद्यन्ते । तथा 4-4"बौद्धानामष्टादशनिकायभेदा A-50वैभाषिकसौत्रान्तिकयोगाचारमाध्यमिकादिभेदा वा वर्तन्ते । जैमिनेश्च शिष्यकृता बहवो भेदाः । “ओंबेकः कारिकां वेत्ति तन्त्रं वेत्ति प्रभाकरः । वामनस्तूभयं वेत्ति न किंचिदपि रेवणः ।। १ ।।" अपरेऽपि बहूदककूटीचरहंसपरमहंसभाट्टप्रभाकरादयोऽनेकेऽन्तर्भेदाः । सांख्यानां चरकादयो भेदाः । अन्येषामपि सर्वदर्शनानां देवतत्त्वप्रमाणमुक्तिप्रभृतिस्वरूपविषये तत्तदनेकशिष्यसंतानकृतास्तत्तद्गन्थकारकृता वा मतभेदा बहवो विद्यन्ते । तदेवमनेकानि दर्शनानि लोकेऽभिधीयन्ते । तानि च सर्वाणि देवतातत्त्वप्रमाणादिभेदेनात्राल्पीयसा प्रस्तुतग्रन्थे नाभिधातुमशक्यानि, तत्कथनत्राचार्येण सर्वदर्शनवाच्योऽर्थो निगद्यत इत्येवं गदितुमशक्योऽर्थो वक्तुं प्रत्यज्ञायि, गगनाङ्गुलप्रमितिरिव पारावारोभयतटसिकताकणगणनमिवात्यन्तं दुःशक्योऽयमर्थः प्रारब्ध इति चेत् । सत्यमेतद्यद्यवान्तरतद्भेदापेक्षया वक्तुमेषोऽर्थः प्रक्रान्तः स्यात् । यावता तु मूलभेदापेक्षयैव यानि सर्वाणि दर्शनानि तेषामेव वाच्योऽत्र वक्तव्यतया प्रतिज्ञातोऽस्ति नोत्तरभेदापेक्षया, ततो न कश्चन दोषः । सर्वशब्दं च व्याचक्षाणैरस्माभिः पुराप्ययमर्थो दर्शित एव, परं विस्मरणशीलेन भवता विस्मारित इति ।।१।। (२९) इत्यादि पद से कुछ दूसरे मतो की मान्यता : (१)कुछ ईश्वरवादियों की मान्यता : प्रकृतिनां यथा राजा रक्षार्थमिह चोद्यतः । तथा विश्वस्य विश्वात्मा स जागर्ति महेश्वरः ॥६२॥अन्यो जतुरनीशोऽयमात्मानः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव च ॥६३॥ इस लोक में प्रजा के रक्षण के लिए जैसे राजा प्रयत्नशील होता है, वैसे इस जगत के रक्षण के लिए वह जगत का आत्मा महेश्वर जागता है। (अर्थात् जगत महेश्वर की प्रेरणा से चलता है।) क्योंकि अपने को सुख-दुःख देने में (महेश्वर के सिवा) अन्य जीव समर्थ नहीं है । (क्योंकि) ईश्वर की प्रेरणा से जीव स्वर्ग में या नर्क में जाता है। (२) भूतवादिकी मान्यता : पृथिव्यपस्तेजोवायुरिति तत्त्वानि तत्समुदाये शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञा । मदशक्तिवच्चैतन्यं जलबुद्बुद्वज्जीवाश्चैतन्यविशिष्टः कायः पुरुष इति ॥३१॥ पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये चार तत्त्वो के समुदाय में शरीर, इन्द्रिय और विषय ऐसे नाम पडते है। और (जैसे महुडा, गुड इत्यादि सामग्रीयां एक होने से) मद शक्ति उत्पन्न होती है तथा जल में जैसे भिन्न भिन्न बुलबुले उत्पन्न होते है। वैसे इस तत्त्वो के समुदाय में से (भिन्न-भिन्न) जीव उत्पन्न होते है। उसमें चैतन्यविशिष्ट जो शरीर उसकी पुरुष-जीव संज्ञा है। उपरांत भौतिकानि शरीराणि, विषयाः करणानि च । तथापि मंदैरन्यस्य कर्तृत्वमुपदिश्यते ॥३२॥ शरीर, स्पर्शादि विषय तथा इन्द्रिय (पूर्वोक्त) पृथ्व्यादि भूत से बने हुए है । तो भी मन्दबुद्धिवाले जीव उसकी उत्पत्ति अन्य से उपदेशित करते है। (३) नास्तिकवाद की मान्यता आगे उपर बताई जायेगी। (A-49-50) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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