SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - २ टीकाका भावानुवाद : इस अनुसार जीव सर्वगत है या नहि ? इत्यादि जीव के स्वरुप में तथा ज्योतिषचक्र के परिभ्रमण के स्वरुपविषयक अनेक विवाद है। तथा बौद्धो के अठारह निकाय तथा (१) वैभाषिक (२) सौत्रान्तिक (३) योगाचार (४) माध्यमिक ऐसे चार भेद है। जैमिनी के शिष्यो द्वारा की गई (विचारणाओ के) बहोत भेद है। (वह जैमिनी के शिष्यो में कुमारिल भट्ट का शिष्य औबेककारिका को जानता है। (-मानता है।) (जिससे गुरुमत नीकला है वह) प्रभाकर तंत्र-सिद्धांत को जानता है (-स्वीकार करता है।) वामन कारिका-तंत्र उभय को जानते है। तथा अन्य रेवण एक को भी नहीं मानता। इस प्रकार जैमिनी के शिष्यो में अनेक भेद है। दूसरे भी बहूदक, कूटीचर, हंस, परमहंस, भाट्ट, प्रभाकर इत्यादि अनेक अवांतर भेद है। सांख्यदर्शन में भी श्री चरक आदि अनेक आचार्यो के सिद्धांत भिन्न-भिन्न है। अन्य भी सर्वदर्शनो में देव, तत्त्व, प्रमाण, मुक्ति इत्यादि के स्वरुप के विषय में तत् तत् दर्शन के शिष्य परंपरा से कीये गये अथवा तत् तत् दर्शन के ग्रंथकारो द्वारा किये गये सिद्धांतो में बहोत मतभेद है। इसलिए ही जगत में अनेक दर्शन है, ऐसा कहा जाता है। __ शंका : वे सर्वदर्शनो को देव, तत्त्व और प्रमाणादि के भेद से कहने के लिये इस छोटे से प्रस्तुत ग्रंथ में संभव नहीं है। तो किस प्रकार ग्रंथकार श्री आचार्य भगवंत के द्वारा सर्वदर्शनो का वाच्यार्थ कहूंगा, ऐसा कहा गया? ग्रंथकारश्रीने कहने के लिये असंभव अर्थो को कहने के लिये प्रतिज्ञा की है। इससे आसमान को अंगली से मापने की तरह तथा समुद्र के उभयतट की रेत के कण को गिनने जैसा अत्यंत दुसंभव ऐसे कार्य का प्रारम्भ किया है। समाधान : आप की यह आपत्ति सत्य तब कही जायेगी कि, जब (तत् तत् दर्शनो के) अवान्तर भेदो की अपेक्षा से कहने के लिए प्रारम्भ किया होता। (परन्तु हमने तो) मूलभेद की अपेक्षा जो है, वे दर्शनो के वाच्यार्थ को ही यहां कहने के लिए प्रतिज्ञा की है। तत् तत् दर्शनो के उत्तरभेद की अपेक्षा से वाच्यार्थ कहने की प्रतिज्ञा नही की है। इसलिये कोई दोष नहीं है। और (दर्शन के आगे रहे हुए) सर्वशब्द को कहते हुए हमारे द्वारा भी यही बात बताई गई थी। परन्तु भूल जाने के स्वभाववाले आपके द्वारा विस्मरण हो गया है। एनमेवार्थं ग्रन्थकारोऽपि साक्षादाहयही अर्थ को ग्रंथकारश्री भी साक्षात् (श्लोक द्वारा) कहते है। (मूल श्लो०) दर्शनानि षडेवात्र मूलभेदव्यपेक्षया । देवतातत्त्वभेदेन ज्ञातव्यानि मनीषिभिः ।। २ ।। श्लोकार्थ : मूलभेद की अपेक्षा से देव, तत्त्व के भेद से प्रस्तुत ग्रंथ में बुद्धिमानो द्वारा छ: ही दर्शन है, ऐसा जानना। अत्र प्रस्तुतेऽस्मिन्ग्रन्थे दर्शनानि षडेव मूलभेदव्यपेक्षया मूलभेदापेक्षया मनीषिभिर्मे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy