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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १ (२३)अहेतुक माना है। पूरण जगतको (२४)नियतिजनित मानते है । पराशर (२५) परिणाम से उत्पन्न हुए जगत को मानते है। कुछ लोगोने (२६)यादृच्छिक जगत की उत्पत्ति को मानी है। (२७)अनेकवादियोने जगत को अनेक स्वरुप में माना है । (२८ तुरुष्को गौस्वामीओने एक दिव्य पुरुष में से उत्पन्न हुआ माना है । सकलाभ्यां तु, दिवं भूमिं च निर्ममे ॥२८॥ पूर्वार्ध ॥ नारायण से पर (भिन्न) अव्यक्त है । उस अव्यक्त में से एक अण्डा उत्पन्न हुआ। सृष्टि में यह सारा भेद तथा सातद्वीपवाली पृथ्वी भी अण्डे में से ही उत्पन्न हुई जानना। ये समुद्रो को उस अण्डे का गर्भजल जानना और पर्वत उस अण्डे का जरायु (गर्भ में होती पतली चर्मजाल) है। सब ऐसे अण्डे के मध्यभाग में सात-सात लोक रहे हुआ है। (भू, भूवः, स्वः, महः, जन, तप और सत्य ये सात लोक ऊपर और तल, वितल, सुतल, रसातल, तलातल, पाताल ये सात लोक नीचे है।) उस अण्ड में वह आदि (नारायण) भगवानने सम्पूर्ण एक साल रहकर-बसकर विचार करके खुद ही उस अण्डे के दो भाग किये, वे दो भाग में से एक भाग को स्वर्ग रुप में और दूसरे भाग को भूमि (पृथ्वी) रुप में स्थापित किया। (२३) अहेतुकवादियो की मान्यता : लोकतत्त्वनिर्णय : हेतुरहिता भवन्ति हि, भावाः प्रतिसमयभाविनश्चित्राः । भावादृते न भाव्यं, संभवरहितखपुष्पमिव । प्रत्येक समय विचित्र रुप से होनेवाले ये पदार्थ निश्चय से अहेतुक है। अर्थात् पदार्थो में जो कुछ परिवर्तन होता है उसमे कोई कारण नहीं है। (स्वाभाविक रुप से हुआ करता है।) क्योंकि भाव के बिना भाव्य नहि होता (अर्थात् पदार्थ के बिना पदार्थ परिवर्तना नहीं होता) और भाव्यरहित भाव न होता और यदि भाव हो तो यह सब भाव-भाव्य इत्यादि आकाश-पुष्प की भांति असत् (असंभवित) है। इसलिये जगत की विचित्रताए अहेतुक है। (२४)नियतिवादि की मान्यता : प्राप्तव्यो नियतबलाश्रयेण योऽर्थः, सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा । भूतानां महति कृतेऽपि हिप्रयत्ने, नाऽभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः ॥२९॥जो शुभ अथवा अशुभ अर्थ (वस्तु) नियतिबल के वश से होनेवाला हो तो मनुष्यो को अवश्य होता है। जीव बहोत प्रयत्न करे तो भी जो न होनेवाला हो वह नहीं ही होता और जो होनेवाला है उसका नाश नहीं होता। इसलिये जगत के सर्वभाव नियतिबल के आधीन है। (२५)परिणामवादि की मान्यता : प्रतिसमयं परिणामः प्रत्यात्मगतश्च सर्वभावानाम् । संभवति नेच्छयापि, स्वेच्छा क्रमवर्तिनी यस्मात् ॥३०॥ सर्वपदार्थो का अपने-अपने स्वरुप में होता परिणाम, प्रतिसमय इच्छा के बिना भी होता है, क्योंकि अपनी ईच्छा अनुक्रम में प्रवर्तित होनेवाली होती है। (इसलिये वस्तु का परिणाम इच्छा से ही होता है, ऐसा नहीं है।) (२६) "यादृच्छिकमिदं सर्वं, केचिद् भूतविकारजं । केचिच्चानेकरुपं तु, बहुधा संप्रधाविताः ॥५०॥ कुछ लोग इस जगत को यादृच्छिक (अतर्कित - अकस्मात से) उत्पन्न हुआ मानते है। कुछ पंचभूत के विकार से बना हुआ मानते है। कुछ लोग अनेकरुपवाला मानते है। ऐसे जगत की उत्पत्ति के विषय में अनेकमतवादियों अनेक विचारो में (मान्यताओ में) दौड रहे है। (२७) अनेकवादि की मान्यता : कारणानि विभिन्नानि, कारणानि च यतः पृथक् । तस्मात् त्रिष्वपि कालेषु नैव कर्माऽस्ति निश्चयः ॥३५॥ जिस कारण से कारण (हेतु) भिन्न भिन्न है और (उस कारण से) कार्य भी भिन्न-भिन्न है । इसलिये तीनो काल में कर्म है ही नहि, यह निश्चय है। यहां कर्म एक ही कारणरुप हो तो, उससे हुए कार्य भी समान होने चाहिये। परन्तु जगत में ऐसा दिखता नहीं है। इसलिए जगत की उत्पत्ति अनेक कारणो से है । अर्थात् अनेक स्वरुप से है। (२८) तुरुष्को गौस्वामिओने एक दिव्यपुरुष में से उत्पन्न हुआ मानते है। यहां गौस्वामी से जितेन्द्रिय पुरुष ऐसा समजना है। अर्थात् दिव्यपुरुषो में से जितेन्द्रिय पुरुषो की उत्पत्ति होती है और उससे जगत की उत्पत्ति हुई। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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