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________________ ३२ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक -१ विज्ञानमात्र (विज्ञान स्वरुप) मानते है। अन्य किसीने जगत को (१८ एक जीवस्वरुप माना है। कोई अनेक जीवात्मक मानता है। दूसरे कुछ लोग पुरातन(१९) कर्म से जगत की उत्पत्ति मानते है । अन्य कुछ लोग जगत की उत्पत्ति(२०) स्वभाव से मानते है। कुछ लोग (२१)अक्षर में से उत्पन्न हुए पंचमहाभूत से जगत की उत्पत्ति मानते है । कुछ लोग जगत को (२२)अण्डे में से उत्पन्न हुआ मानते है । आश्रमीओने जगतको भी अपने सन्मुख रही हुई वस्तुओ के रुप में देखता है। कहने का आशय यह है कि, जगत जैसा कुछ नहीं होने पर भी भ्रम से जगत दीखता है। (१८) एक जीव (ब्रह्म) स्वरुप जगत की मान्यता : लोकतत्त्वनिर्णय में कहा है कि - पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यं । उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥यदेजति यन्नजति, यद्रे यदु अन्तिके, यदन्तरस्य सर्वस्य यदु सर्वस्यास्य बाह्यो, यस्यात्परं नापरमस्ति किंचिद्यस्मानाणीयो, न ज्वायोऽसि कश्चिद् एव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकस्तेनेदं पूर्णं पुरुषरुपेण, सर्वं एक वृक्ष एव हि भूतात्मा यदा सर्वं प्रलीयते ॥१॥ जो हुआ है जो होनेवाला है अथवा मोक्षपन का अधिपति और जो अन्न के द्वारा वृद्धि प्राप्त करता है, वह सर्व आत्मा (एक ब्रह्म) ही है, जो गतिशील है (त्रस है।) जो गतिशील नहीं है (स्थावर है।) जो दूर है, जो नजदीक है, जो यह सर्व के अंदर है, सर्व के बाहर है। उससे कोई उत्कृष्ट नहीं है। उससे कोई छोटा नहीं है। जिससे कोई भी बड़ा नहीं है और (विराटरुप होने से) आकाश में वृक्ष की तरह जो एक स्थिर रहता है, वही एक आत्मा के रुप द्वारा यह जगत परिपूर्ण है। जगत में जब यह एक ही भूतात्मा (पुरुषरुप) होता है, तब दूसरा सब (पृथ्व्यादि रुपान्तर तत्त्व) उस आत्मा में लीन हो जाता है। (१९) कर्मवादि की मान्यता : लोकतत्त्वनिर्णय में कहा है कि - चेतनोऽध्यवसायेन, कर्मणा संनिबध्यते । ततो भवस्तस्य भवेत्तदभावात परं पदम ॥१२॥ उद्धरेदीनमात्मानं, नात्मानमवसादयेत् । आत्मनैवात्मनो बंधुरात्वमैव रिपुरात्मनः ॥१३॥ सुतुष्टानि मित्राणि सुकुद्धाश्चैव शत्रवः । न हि मे तत्करिष्यन्ति, यन्न पूर्वकृतं मया ॥१४॥ शुभाऽऽशुभानि कर्माणि, स्वयं कुर्वन्ति देहिनः । स्वयमेवोपकुर्वन्ति, दुःखानि च सुखानि च ॥१५॥ वने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये, महार्णवे पर्वतमस्तके वा । सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा रक्षन्ति पुण्यानि पुराकृतानि ॥१६॥ (२०) स्वभाववादियो का मत : 'यः कंटकानां'.... श्लोक द्वारा पहले कहा गया है। (२१) अक्षरवादियो की मान्यता : अक्षरात् क्षरित कालस्तस्माद् व्यापक इष्यते । व्यापकादिप्रकृत्यंतां, तां हि सृष्टिं प्रचक्षते ॥२३॥ अक्षर में से काल गिर पडा इसलिये काल व्यापक माना जाता है । इसलिये जिसके आदि और अंत में प्रकृति है, उसको निश्चय से सृष्टि कहा जाता है। __ अक्षरवादियो में कुछ इस अनुसार कहते है - अक्षरांशस्ततो वायुस्तस्मात्तेजस्ततो जलं । जलात् प्रसृता पृथ्वी, भूतानामेष संभवः ॥२४॥ अक्षर के अंश (आकाश) में से वायु उत्पन्न हुआ, वायु में से अग्नि, अग्नि में से पानी और पानी में से पृथ्वी उत्पन्न हुई। पञ्चमहाभूत की इस प्रकार उत्पत्ति हुई । (उसे ही जगत कहा जाता है।) (२२) अंडवादियो की मान्यता : लोकतत्त्वनिर्णय - नारायणपराऽव्यक्ता दंडमव्यक्तसंभवं । अंडस्यांतस्त्वमी भेदाः सप्त द्वीपा च मेदिनी ॥२५॥गर्भोदकं समुद्राश्च, जरायुश्चापि पर्वताः । तस्मिन्नंडे त्वमीलोकाः सप्त सप्त प्रतिष्ठा ॥२६॥ तत्रेहाद्यः स भगवानुषित्वा परिवत्सरं । स्वयमेवात्मना ध्यात्वा तदंडमकरोद् द्विधा ॥२७॥ ताभ्यां स Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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