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________________ २८ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १ अंतिम दसवें स्थान पे उत्पत्ति को स्थापित करे । वे जीवादि नवके प्रत्येक के नीचे (६)सत्त्वादि सात रखना । वे सात इस अनुसार १. सत्त्वं, २. असत्त्वं, ३. सदसत्त्वं, ४. अवाच्यत्वं, ५. सदवाच्यत्वं, ६. असदवाच्यत्वं, ७. सदसदवाच्यत्वं । उसमें १. सत्त्व अर्थात् वस्तु का स्वस्वरुप से होना। २. असत्त्व : अर्थात् वस्तु का पर स्वरुप से न होना। ३. सदसत्त्व : अर्थात् वस्तु स्वरुप से सत् और पररुप से असत् (अर्थात् स्वरुप से विद्यमान और पररुप से अविद्यमान है।) उसमें वैसे तो सर्ववस्तुएं सर्वदा स्वभाव से ही स्वरुपतः सत् और पररुपतः असत् होती है, तो भी कहीं कभी किसी उद्भूत वस्तु की प्रमातृ द्वारा विवक्षा की जाती है, तब वस्तु के सत्, असत् और सदसत् ये तीन विकल्प होते है। (अर्थात् प्रमातृ वस्तु के जिस अंशका प्रयोग करना चाहते हो तथा वह अंश उद्भूत होता हो तब सत्, असत्, सदसत् ये तीन विकल्प होते है। ४. अवाच्यत्व : वस्तु के सत्त्व और असत्त्व अंशो को जब एक साथ एक शब्द से वक्ता कहना चाहता है, तब उसका वाचक कोई भी शब्द नहीं मिलता - वह अवाच्यत्व । ये चारो विकल्प सकलादेश है। क्योंकि चारो विकल्प सर्ववस्तु विषयक है। ५. सदवाच्यत्व : जब वस्तु का एक अंश सत् हो और दूसरा अंश अवाच्य ऐसी एक साथ विवक्षा की जाये तब "सदवाच्यत्व" रूप पांचवा भांगा बनेगा । जब एक अंश असत् और दूसरा अंश अवाच्य हो, तब "६. असदवाच्य" स्वरुप छठ्ठा भांगा बनता है। जब एक अंश सत्, अपर अंश असत् तथा अपरतर अंश अवाच्य हो तब "७. सदसदवाच्यत्व" स्वरुप सातवां भांगा बनता है। ये सात विकल्पो से अन्य, अतिरिक्त विकल्प संभवित नहीं है। क्योंकि दूसरे कोई भी विकल्प आयें तो वे सर्व विकल्पो का इस सात विकल्पो में अंतर्भाव हो जाता है। इस तरह सात विकल्पो का उपन्यास हुआ। वे सात का नौ द्वारा गुणन करने से ७x ९ = ६३ विकल्प हुए। उत्पत्ति के प्रारंभ में चार विकल्प है। १. सत्त्वं, २. असत्त्वं, ३. सदसत्त्वं, ४. अवाच्यत्वं-शेष तीन विकल्प उत्पत्ति के उत्तर में (जब पदार्थो की सत्ता बन जाती है तब) पदार्थ के अवयव की अपेक्षा अनुसार संभवित होते है। इसलिये उत्पत्ति में वे तीन को नहि कहा । ये चार विकल्पो को (पहले कह गये) ६३ विकल्पो में डालने से ६७ विकल्प होते है। ___ इसलिये "कौन जानता है कि जीव है या नहि ?" इस अनुसार एक विकल्प होगा। "कोई जानता नहीं है कि जीव है" क्योंकि जीव को ग्रहण करनेवाले ग्राहक प्रमाण का अभाव है। अथवा जीव को जानने के द्वारा क्या प्रयोजन है ? (जीव का) ज्ञान अभिनिवेश का कारण बनता होने से परलोक का विरोधी है। इस पद्धति से "असत्" इत्यादि विकल्प सोचना । उत्पत्ति भी क्या सत् की, असत् की, सदसद् की, या अवाच्य की होती है वह कौन जानता है? अथवा (उत्पत्ति किस से होती है?) वह जानने का भी कुछ प्रयोजन नहीं है। (६) सत्त्वादि सात की विशेष समज परिशिष्ट में देखना । For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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