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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १ २७ स्वपररूपाभ्यां सर्वदैव स्वभावत एव सदसत्, तथापि क्वचित्किंचित्कदाचिदुद्भूतं प्रमात्रा विवक्ष्यते, तत एवं त्रयोविकल्पा भवन्ति ।३ ।तथा तदेव सत्त्वमसत्त्वं च यदा युगपदेकेनशब्देन वक्तुमिष्यते, तद्वाचकः शब्दः कोऽपि न विद्यत इत्यवाच्यत्वम्, एते चत्वारो विकल्पाः सकलादेशा इति सकलवस्तुविषयत्वात् । ४ । यदा त्वेको भागः सन्नपरश्चावाच्यो युगपद्विवक्ष्यते तदा सदवाच्यत्वम् । ५ । यदा त्वेको भागोऽसन्नपरश्चावाच्यस्तदाऽसदवाच्यत्वम् । ६ । यदा त्चेको भागः सन्नपरश्चासन्नपरतरश्चावाच्यस्तदा सदसदवाच्यमिति ७। न चैतेभ्यः सप्तभ्यो विकल्पेभ्योऽन्यो विकल्पः संभवति, सर्वस्यैतेष्वेवान्तर्भावात् । ततः सप्त विकल्पा उपन्यस्ताः ।सप्तचविकल्पा नवभिर्गुणिताजातात्रिषष्टिः । उत्पत्तेश्चत्वार एवाद्या विकल्पाः । तद्यथा । सत्त्वमसत्त्वं सदसत्त्वमवाच्यत्वं चेति । शेषविकल्पत्रयं तूत्पत्त्युत्तरकालंपदार्थावयवापेक्षमतोऽत्रासंभवीतिनोक्तम् । एते चत्वारो विकल्पास्त्रिषष्टिमध्ये प्रक्षिप्यन्ते ततः सप्तषष्टिर्भवन्ति । A-28ततः को जानाति जीवः सन्नित्येको विकल्पः । न कश्चिदपि जानाति, तद्ग्राहकप्रमाणाभावादिति भावः । ज्ञातेन वा किं तेन प्रयोजनं, ज्ञानस्याभिनिवेशहेतुतया परलोकप्रतिपन्थित्वात् । एवमसदादयोऽपि विकल्पा भावनीयाः । उत्पत्तिरपि किं सतोऽसतः सदसतोऽवाच्यस्य वेति को जानाति, ज्ञातेन वा न किंचिदपि प्रयोजनमिति । टीकाका भावानुवाद : अथवा श्री वर्धमानस्वामी को सर्वज्ञ भले ही न माने, तो भी आचारांगादि सूत्रो में प्ररुपित उपदेश उनका ही है। दूसरे किसी धूर्तपुरुषने स्वयं रचकर (बनाकर) नहीं फैलाया। ऐसा किस तरह जानेंगे? क्योंकि (वह ग्रंथरचना होती हमने प्रत्यक्ष नहीं देखी ।) अतीन्द्रियविषय में प्रमाण का अभाव है। अथवा आचारांगादि में प्ररुपित उपदेश श्री वर्धमानस्वामी का ही है, ऐसा मान ले तो भी "उस उपदेश का यही अर्थ होगा, अन्य नहीं" ऐसा कहना संभव नहि है क्योंकि, लोक में शब्दो के अनेक अर्थ प्रवर्तमान होते है और ऐसा दिखाई भी देता है। इसलिये दूसरे तरीके से भी अर्थ होने का संभव होने से किस प्रकार से विवक्षित अर्थ का निश्चय हो सकेगा ? उपरांत छद्मस्थ द्वारा दूसरो के चित्तकी वृत्ति प्रत्यक्ष नहीं होती, तो किस तरह जानेंगे कि..... "यह अभिप्राय सर्वज्ञ का है। और यही अभिप्राय से यह शब्द प्रयोजित है दूसरे अभिप्राय से नहीं।" इसलिये इस तरह से (चित्त की कलुषितता द्वारा) दीर्घतर संसार का कारण और सम्यग् निश्चय का अभाव होने से ज्ञान श्रेयस्कर नहीं है, परन्तु अज्ञान ही कल्याणकारक है ऐसा तय होता है। (निश्चित होता है।) वे अज्ञानिक इस उपाय से ६७ स्वीकार करना । यहाँ जीवादि नव पदार्थो को एक पट्टी में स्थापित करके (A-28) -- तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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