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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १
उत्तर ( अज्ञानिक): ऐसा नहीं कह सकते । क्योंकि श्री वर्धमानस्वामी को हुए बहोत काल हो गया। वर्तमान में तो वे देवो से पूजित होते नहीं दिखाई देते । इसलिए सर्वज्ञ के ग्राहक प्रमाण का अभाव ही है। इसलिए संशय खडा ही है।
प्रश्न : संप्रदाय = (अर्थात् गुरुओं की परंपरा) से मालूम होता है कि श्री वर्धमानस्वामी सर्वज्ञ थे। इसलिए उनका वचन सम्यग् है।
उत्तर (अज्ञानिक): वह संप्रदाय भी धूर्तपुरुषो से प्रवर्तित है या सत्यपुरुष से प्रवर्तित है, यह कैसे जानेगें? क्योंकि यह बतानेवाले प्रमाण का अभाव है और प्रमाण बिना हम स्वीकार करने के लिये समर्थ नहीं है। क्योंकि प्रमाण के बगैर स्वीकार करने से अतिप्रसंग आता है। वह अतिप्रसंग न आये इसलिये हम संप्रदाय से भी श्री वर्धमानस्वामीको सर्वज्ञ स्वीकार नहीं करते है। इसलिये संशय खड़ा ही है।
दूसरा मायावी पुरुष स्वयं असर्वज्ञ होने पर भी जगत में अपने को सर्वज्ञ प्रकट करने की इच्छावाले होते है। (वे लोगो को) उस प्रकार की इन्द्रजाल के वश से अर्थात् इन्द्रजाल रचके (बनाकर) यहां वहां भटकते देवो के पास अपनी पूजादि करते दिखाते है। इसलिए देवो के आगमन के दर्शन मात्र से भी किस प्रकार उसके सर्वज्ञपन का निश्चय हो सकता है ? श्री जैन स्तुतिकारश्री समन्तभद्राचार्यने भी कहा है कि "देवो का आगमन, आकाश में चलना, चामरादि विभूतिया मायावी में भी दिखती है, इससे हम आपको महान नहीं मानते।
इस तरह देवो से पूजित होनेमात्र से श्री वर्धमानस्वामी में सर्वज्ञत्व नही आ जाता। ___ भवतु वा वर्धमानस्वामी सर्वज्ञस्तथापितस्यसत्कोऽयमाचाराङ्गादिक उपदेशः, न पुनः केनापिधूर्तेन स्वयं विरचय्य प्रवर्तित इति कथमवसेयं, अतीन्द्रिये विषये प्रमाणाभावात् । भवतु वा तस्यैवायमुपदेशस्तथापि तस्यायमर्थो नान्य इति न शक्यं प्रत्येतुं, नानार्था हि शब्दा लोके प्रवर्तन्ते, तथादर्शनात् । ततोऽन्यथाप्यर्थसंभावनायां कथं विविक्षितार्थनियमनिश्चयः । छद्मस्थेन हि परचेतोवृत्तेरप्रत्यक्षत्वात कथमिदं ज्ञायते “एष सर्वज्ञस्याभिप्रायोऽनेन चाभिप्रायेणायं शब्दः प्रयुक्तो नाभिप्रायान्तरेण" इति । तदेवं दीर्घतरसंसारकारणत्वात् सम्यग्निश्चयाभावाञ्च न ज्ञानं श्रेयः, किं त्वज्ञानमेवेतिस्थितम् ।तेचाज्ञानिकाः सप्तषष्टिसंख्याअमुनोपायेन--27प्रतिपत्तव्याः ।इह जीवाजीवादीन् पदार्थान्क्वचित्पट्टकादौ व्यवस्थाप्य पर्यन्त उत्पत्तिः स्थाप्यते । तेषां च जीवादीनां नवानां प्रत्येकमधः सप्त सत्त्वादयो न्यस्यन्ते । तद्यथा । सत्त्वं १ असत्त्वं २, सदसत्त्वं ३, अवाच्यत्वं ४, सदवाच्यत्वं ५, असदवाच्यत्वं ६, सदसदवाच्यत्वं ७ चेति । तत्र सत्त्वं स्वरूपेण विद्यमानत्वम् । १ । असत्त्वं पररूपेणाविद्यमानत्वम् । २ ।सदसत्त्वं स्वरूपपररूपाभ्यां विद्यमानाविद्यमानत्वम्, तत्र यद्यपि सर्वं वस्तु
(A-27) - तु० पा० प्र० प० ।
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