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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १
होती है। उससे दीर्घतर संसार में भटकने की प्रवृत्ति होती है। (परन्तु) जब अज्ञानता का आश्रय किया जाता है, तब अहंकार का संभव नहीं है। दूसरो के ऊपर चित्त कलुषित नहीं होता। इसलिये कर्मबंध का भी संभव नहीं होता।
उपरांत, जो सोचकर किया जाये वह कर्मबंध दारुण विपाकवाला होता है। कर्मबंध दारुणविपाकवाला होने से ही अवश्य सहना पडता है। क्योंकि, वह तीव्र अध्यवसाय से उत्पन्न हुआ है। उपरांत जो मनोव्यापार के बिना काया-वचन की प्रवृत्तिमात्र से (कर्मबन्ध) किया जाता है, उसमें मनका निवेश न होने से वह कर्मबन्ध अवश्य वेद्य भी नहीं होता और उसका विपाक दारुण भी नहीं होता । वह कर्मबन्ध अतिशुष्क चूने से पोती गई दिवाल के ऊपर लगे हुए धूल के मल की भांति स्वतः ही शुभ अध्यवसायरुप पवन से क्षोभ प्राप्त करके नष्ट होता है।
प्रवृत्ति में मन के निवेश का अभाव अज्ञान के स्वीकार में होता है। अर्थात् अज्ञान का स्वीकार करने से मन प्रवृत्ति में मिलता नहीं है। (जबकि) ज्ञान का स्वीकार करने पर मन प्रवृत्ति में मिलता है। इसलिए मोक्षमार्ग में प्रवृत्त मुमुक्षु द्वारा अज्ञान का ही स्वीकार होना चाहिये, ज्ञान का नहीं। _ दूसरा यह है की, ज्ञान का स्वीकार करना तब उचित बनेगा कि, जब ज्ञान का निश्चय करने के लिए समर्थ हो। (परन्तु) ज्ञान का निश्चय नहीं होता । जैसेकि.... सब दर्शनकार भी परस्परभिन्न ज्ञानका ही स्वीकार करते है। इसलिए ज्ञान का निश्चय करना संभव नहीं बनता। क्या इस दर्शन का ज्ञान सम्यग् है या इस अन्यदर्शन का सम्यग् है ? ऐसा निश्चय नहीं हो सकता।
प्रश्न : सकलवस्तु के समूह के साक्षात्कारी श्रीवर्धमानस्वामी भगवान के उपदेश से ज्ञान का निश्चय होता है कि, जैनदर्शन का ज्ञान सम्यग् है और इतरदर्शन का ज्ञान असम्यग् है। क्योंकि इतरदर्शन के प्रणेता सर्वज्ञ नहीं है। (अर्थात् इतरदर्शनो का ज्ञान असर्वज्ञमूलक है। इस तरह ज्ञान के सम्यग्पन का तथा मिथ्यापन का निश्चय हो सकता है।)
उत्तर ( अज्ञानिक): आपकी बात सच है। परन्तु वे वर्धमानस्वामी ही सकल पदार्थो के समूह के साक्षात्कारी है (सर्वज्ञ) है और बौद्धादि सर्वज्ञ नहीं, वह किस तरह मालूम होगा? क्योंकि, सर्वज्ञत्व को ग्रहण करनेवाले ग्राहक प्रमाण का अभाव है। इसलिये किस दर्शन का ज्ञान सम्यग् मानेंगे? ऐसा संशय खडा ही है।
प्रश्न : देवलोक से आकर देव जिन की पूजादि करते है। वही वर्धमानस्वामी सर्वज्ञ है, शेष दर्शनकार सुगतादि सर्वज्ञ नहीं है । (कहने का मतलब यह है कि देव विबुध (पण्डित) कहे जाते है । वे श्री वर्धमानस्वामी की पूजा करते है। इसलिए श्री वर्धमानस्वामी सर्वज्ञ होने चाहिये । ऐसा कहा जा सकता है। इसलिए) श्री वर्धमानस्वामी प्ररुपितज्ञान सम्यग् और उसके सिवा अन्य दर्शनो का ज्ञान असम्यग्, ऐसा निश्चय हो ही सकता है।
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