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षड्दर्शन समुञ्चय भाग-१, श्लोक-१
यदृच्छा से ही कार्य-कारण भाव को चाहते है वे यदृच्छावादि है। वे इस अनुसार कहते है - "पदार्थो का प्रतिनियत कार्य-कारणभाव नहीं है। क्योंकि उस अनुसार प्रमाण से ग्रहण नहीं होता है। (अर्थात् कोई प्रमाण से पदार्थो के प्रतिनियत कार्य-कारणभाव सिद्ध नहीं होते।) वह इस अनुसार -- (१) कमल के कंद में से भी कमल का कंद उत्पन्न होता है, गोमय से भी कमल का कंद पैदा होता है। (२) अग्नि से भी अग्नि उत्पन्न होती है, अरणि के काष्ठ से भी अग्नि उत्पन्न होती है। (३) धूम से भी धूम उत्पन्न होता है। अग्नि ईन्धन के सम्पर्क से भी धूम उत्पन्न होता है। (४) कंद से भी केले का वृक्ष उत्पन्न होता है, बीज से भी होता है । (५) बीज से वट इत्यादि वृक्ष उत्पन्न होते है। शाखा के एकदेश से भी होते है । (६) गेहूं के बीज से गेहूं के अंकुर उत्पन्न होते है, बाँस के बीज से भी गेहूं के अंकुर फूटते है। इसलिए कहीं कुछ (उत्पन्न) होता है। ऐसा स्वीकार करना चाहिये। __इस प्रकार (जगत में) अन्यथा (कार्य-कारणभाव से रहित) वस्तु के सद्भाव को देखता कौन बुद्धिमान व्यक्ति आत्मा को क्लेश करेगा ? कार्य-कारणभाव सहित वस्तु का सद्भाव देखकर अर्थात् कार्यकारणभाव से रहित वस्तुओ को देखता, कार्य-कारणभाव की विचारणा करके आत्मा को क्लेश नहीं देता । इसलिए कहा है कि........ "उपस्थित हुआ जीवो के सर्व विचित्र सुख, दुःख का समूह तर्कयुक्त नहीं है । (क्योंकि) "कौओ का बैठना और डाली का गिरना" युक्तियुक्त नहीं है, उसी प्रकार सुख-दुःख को उत्पन्न करनेवाले संयोग भी "काकतालीय" न्याय से बुद्धिगम्य नहीं है। इसलिए "में सुखी करनेवाला हूं।" और "दुःखी करनेवाला हूं" इत्यादि मिथ्या (वृथा-व्यर्थ) अभिमान है।
जगत में जन्म-जरा-मरणादि जो सर्व दीखता है वह भी काकतालीय समान है। अर्थात् उसके कुछ कोई प्रतिनियत कारण नहीं है आकस्मिक है। - इस अनुसार स्वतः छः विकल्प प्राप्त हुए। "नास्ति परतः कालतः" इस अनुसार भी छ: विकल्प प्राप्त होते है। सब मिलाकर जीवपद से बारह विकल्प प्राप्त हुए। इस प्रकार अजीवादि छ: पदार्थो के प्रत्येक बारह विकल्प प्राप्त होते है। इसलिए १२ x ७ = ८४ अक्रियावादियों के विकल्प होते है।
तथा A-2"कुत्सितं ज्ञानमज्ञानं तदेषामस्तीत्यज्ञानिकाः । ततो (अतो)ऽनेकस्वरादिति मत्वर्थीय इकप्रत्ययः [सि. हैम. ७/२]। अथवाऽज्ञानेन चरन्तीत्यज्ञानिकाः, असञ्चिन्त्यकृतकर्मबन्धवैफल्यादिप्रतिपत्तिलक्षणाः साकल्यसात्यमुग्रिमौदपिप्पलादबादरायणजैमिनिवसुप्रभृतयः । ते ह्येवं बुवते । न ज्ञानं श्रेयः, तस्मिन् सति विरुद्धप्ररूपणायां विवादयोगतश्चित्तकालुष्यादिभावतो दीर्घतरसंसारप्रवृत्तेः । यदा पुनरज्ञानमाश्रीयते तदा नाहंकारसंभवो नापि परस्योपरि चित्तकालुष्यभावः, ततो नबन्धसम्भवः । अपि च, यः सञ्चिन्त्य क्रियते कर्मबन्धः स दारुणविपाकोऽत एवावश्यं वेद्यस्तस्य तीव्राध्यवसायतो निष्पन्नत्वात् । यस्तु मनोव्यापारमन्तरेण कायवाकर्मप्रवृत्तिमात्रतो विधीयते, न तत्र
(A-26) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International
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