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________________ २० षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - १ स्वरूपं तत्परत एवावधार्यते, न स्वत इति । एवं नित्यत्वापरित्यागेन दश विकल्पा लब्धाः । एवमनित्यपदेनापि, सर्वेऽपि मिलिता विंशतिः । एते च जीवपदार्थेन लब्धाः । एवमजीवादिष्वष्टसु पदार्थेषु प्रत्येकं विंशतिर्विंशतिर्विकल्पा लभ्यन्ते । ततो विंशतिर्नवगुणिता शतमशीत्युत्तरं क्रियावादिनां भवति । टीकाका भावानुवाद : पांचवाँ विकल्प स्वभाववादियो का है। स्वभाववादि इस अनुसार कहते है -- इस जगत में वस्तु की स्वतः ही परिणति - स्वभाव है। (अर्थात्) जगत के सर्वभाव स्वभाव से ही उत्पन्न होते है। वह इस अनुसार - मिट्टी से घट होता है, पटादि नहीं। तन्तुओ से भी पट ही होता है, घटादि नहीं। ये सब वस्तुओ का प्रतिनियतरुप में उत्पन्न होना, वह स्वभाव के बिना नहीं होता । इसलिए इस (जगत् की वस्तुए स्वभावकृत ही जाननी पडेगी। इसलिए (लोकतत्त्व निर्णय में) कहा है कि "कंटको को (कांटो को) तीक्ष्ण (पैना) कौन करता है ? पशु-पक्षीओके विचित्रभावो को कौन करता है ? ये सर्व स्वभाव से ही प्रवृत्त है। इच्छितवर्तन नहीं है। (इसलिये वे विचित्र भावो में) प्रयत्न कैसे होगा? (उपरांत) बेरी का कांटा तीक्ष्ण, (उसमें भी) । एक ऋजु (सीधा-सरल) और एक वक्र है। (उपरांत) बेरी का फल (बेर) वर्तुल (गोल) है। (तो कहीये) किसके द्वारा (बेरी में इस विचित्रता का) निर्माण किया गया?" उपरांत अन्यकार्यसमूहो की उत्पत्ति में स्वभाव की निमित्तता की विचारणा से गये । (परन्तु) यहां "मूंग का पकना" भी स्वभाव के बिना होने के लिए योग्य (उचित) नहीं है। वह इस प्रकार - स्थालि, इन्धनादि सामग्री के सन्निधान में भी कंकटु मूंग का परिपाक होता नहीं दिखाई देता। इसलिए "जो जो वस्तु में जो जो स्वभाव (भाव) होता है, उस अनुसार वे वे वस्तु होती है।" इस अन्वय से तथा "जो वस्तु में जो स्वभाव नहीं होता, वे वस्तु उस अनुसार नहीं होती ।" इस व्यतिरेक से......... (उदा. कंकटु (कंगरु) के सिवा दूसरे मूंग में पकने का स्वभाव है तो वह पकते है और कंकटु (कंगरु) मूंग में पकने का स्वभाव नहीं है, तो वह पकते नहीं है - इस अन्वय-व्यतिरेक से) सर्व वस्तु स्वभावकृत ही माननी चाहिये । इसलिए सर्व ये वस्तुसमूह का कारण स्वभाव ही मानना चाहिए । इसलिए "स्वतः" पद द्वारा पांच विकल्प प्राप्त हुए । इस अनुसार ही परत: पद से पांच विकल्प की प्राप्ति होती है। "परतः" अर्थात् दूसरे पदार्थो से व्यावृत्त स्वरुप से आत्मा विद्यमान है ऐसा कहना । (अर्थात् आत्मा दूसरे सर्वपदार्थो से पर (भिन्न) है ऐसा कहना) उपरांत (पदार्थ का ज्ञान करने की यह प्रसिद्ध पद्धति है कि) सर्व पदार्थो के स्वरुप का ज्ञान (उससे) दूसरे पदार्थो की अपेक्षा से होता है। (अर्थात् कोई भी पदार्थ का ज्ञान, उससे भिन्नपदार्थो के स्वरुप की अपेक्षा से भिन्न प्रकार से सिद्ध करे, तब वस्तु के वास्तविक स्वरुप का ज्ञान होता है।) जिस प्रकार दीर्घत्वादिकी अपेक्षा से इस्वत्वादि का ज्ञान किया जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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