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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १
करनेवाले (कहनेवाले) आत्मवादि है। (अर्थात् “पुरुष एवेदं सर्वम्" वेद के इस कथन को अनुसरण करते आत्मवादि सर्व जगत को पुरुषरुप ही मानते है।)
चौथा विकल्प नियतिवादियो का है- वे कहते है कि नियति नामका स्वतन्त्र तत्त्व है कि जिसके वश से ये सर्वभाव भी नियतस्वरुप द्वारा प्रादुर्भाव को प्राप्त करते है। नियति बिना नहीं । वह इस अनुसार, जो (वस्तु) जब जिससे होती है, वह (वस्तु) तब उससे ही नियतस्वरुप द्वारा होती दिखाई देती है। अन्यथा कार्य-कारण व्यवस्था और (वस्तुके) प्रतिनियत स्वरुप की व्यवस्था नहीं होगी। क्योंकि नियामक का अभाव है। इसलिये इस अनुसार कार्य की नियतता से ज्ञात होनेवाली इस नियति को प्रमाणमार्ग में कुशल कौनसा व्यक्ति बाध करने के लिये समर्थ होता है ? उपरांत (नियति का स्वीकार करने से) अन्यत्र भी प्रमाणमार्ग के व्याघात का प्रसंग नहीं होगा।
इसलिये (नियतिवादि की इस बात का संग्रह करते हुए) शास्त्रवार्ता समुच्चय में कहा है कि..... "जिस कारण से नियतस्वरुप द्वारा ही भाव उत्पन्न होते है, उस कारण से नियतस्वरुप के अनुवेध से (निश्चित होता है कि) ये सर्वभाव नियति से ही उत्पन्न हुए है। (उपरांत) जो जब ही जिससे होता है, तब यही उससे नियतस्वरुप में उत्पन्न होता है ।" इस न्याय से इस नियति का बाध करने के लिए कौन समर्थ होगा?
पञ्चमो विकल्पः स्वभाववादिनाम्-18 । स्वभाववादिनो ह्येवमाहुः । इह वस्तुनः स्वत एव परिणतिः स्वभावः । सर्वे भावाः स्वभाववशादुपजायन्ते । तथाहि-मृदः कुम्भो भवति न पटादिः । तन्तुभ्योऽपि पट उपजायते न घटादिः । एतञ्च प्रतिनियतं भवनं न तथा स्वभावतामन्तरेण घटासंटकमाटीकते । तस्मात्सकलमिदं स्वभावकृतमवसेयम् । तथा चाहुः- “कः कण्टकानां प्रकरोति तैक्ष्ण्यं, विचित्रभावं मृगपक्षिणां च । स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं, न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः ।। १ ।। [बुद्धच० ९/६२] बदर्याः कण्टकस्तीक्ष्ण ऋजुरेकश्च कुञ्चितः । फलं च वर्तुलं तस्या वद केन विनिर्मितम् ।। २ ।।' [लोकतत्त्व० २/२२] इत्यादि ।
अपि च । आस्तामन्यत्कार्यजातमिह मुद्गपक्तिरपि न स्वभावमन्तरेण भवितुमर्हति । तथाहिस्थालीन्धनकालादिसामग्रीसंभवेऽपि न कंकटुकमुद्गानां पक्तिरुपलभ्यते । तस्माद्यद्यद्भावे भवति तत्तदन्वयव्यतिरेकानुविधायि तत्कृतमिति । स्वभावकृता मुद्गपक्तिरप्येष्टव्या । ततः सकलमेवेदं वस्तुजातं स्वभावहेतुकमवसेयमिति । तदेवं 1-19 स्वत इति पदेन लब्धाः पञ्च विकल्पाः । एवं च A-2 परत इत्यनेनापि पञ्च लभ्यन्ते । परत इति परेभ्यो व्यावृत्तेन रूपेणात्मा विद्यते । यतः प्रसिद्धमेतत् । सर्वपदार्थानां परपदार्थस्वरूपापेक्षया स्वरूपपरिच्छेदो यथा दीर्घत्वाद्यपेक्षया हूस्वत्वादिपरिच्छेदः । एवमात्मनि स्तम्भादीन्समीक्ष्य तद्व्यतिरिक्तबुद्धिः प्रवर्तते । अतो यदात्मनः (A-18-19-20)- तु० पा० प्र० प० ।
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