________________
षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १
१७
दो भेद का उपन्यास करना और उसके भी नीचे काल, ईश्वर, आत्मा, नियति और स्वभाव, ये पांच भेद व्यवस्थित रखना । उसके बाद इस अनुसार (विकल्प) करना --
"अस्ति जीवः स्वतो नित्यः कालतः" यह एक विकल्प। इस विकल्प का अर्थ - यह आत्मा स्वरुप से, काल से नित्य है। कालवादि के मत में यह अर्थ होता है। कालकृत ही सारे जगत को जो लोग मानते है वे कालवादि कहे जाते है। (अर्थात् कालवादि, आत्मा को नित्य और काल को आधीन होके प्रवृत्ति करते है, ऐसा मानते है।) वे कहते है कि चंपक, अशोक, आम आदि वनस्पति (वृक्ष) में फूलो का खिलना, फल का बंधाना, ओस की बुन्दो का गीरना, बर्फ की बारिश होना, नक्षत्र का परिभ्रमण, गर्भाधान, बारिश होना इत्यादि; अथवा ऋतु के विभाग, बाल-कुमार-यौवन अवस्था, चहेरे पर जुर्रियों का पडना, बाल सफेद होना, बुढापा आना इत्यादिक अवस्था विशेष काल के बिना नहीं होती है। प्रतिनियत काल के विभाग से ही उनकी उपलब्धि होती है। यदि सर्वजगत की अवस्था विशेष को कालकृत न माना जाये तो जगत अव्यवस्थाओ से भर जाये । और ऐसा दीखता नहीं है और इष्ट भी नहीं है। उपरांत मूंग की दाल का परिपाक भी काल के बीना लोक में होता नहीं दीखाई देता । परन्तु कालक्रम से ही परिपाक होता दीखाई देता है। अन्यथा स्थालि और इन्धनादि सामग्री का सम्पर्क होने के साथ ही प्रथम समय में भी उसके (परिपाक) का सद्भाव मानना पडेगा (परन्तु ऐसा) नहीं है। इसलिए जो कृतक (जन्य) है, वे सर्व कालकृत है।
तथा (कालवादि की यही बात का संग्रह करते हुए) शास्त्रवार्ता समुच्चय में कहा है कि........ गर्भ, बाल-युवानादि अवस्था, जो कुछ लोक में उत्पन्न होते है, वे काल के बिना उत्पन्न नहीं हो सकते है। उसका कारण सही में यह काल ही है। (१) काल के बिना स्थालिइन्धनादि के संनिधान में क्या मूंग का परिपाक देखा गया है ? (ना, नहीं देखा गया।) इसलिए काल से ही मूंग का परिपाक माना गया है। (२) काल के अभाव में दूसरो ने माने हुए हेतुमात्र से सर्व का उद्भव होता है, ऐसा मानेंगे तो गर्भादि सर्व अव्यवस्था हो जायेगी । (३)" __ (महाभारत में कहा है कि......) "पृथ्वी आदि पंचमहाभूतो को (पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश ये पञ्चमहाभूत है।) काल ही परिपक्व बनाता है। काल ही प्रजा का संहार करता है। काल सोते हुए को जगाता है। (इसलिए) काल सचमुच दुरतिक्रम है।" ।
यहां (उपर के तीसरे श्लोक में) जो ‘परेष्टहेतुसद्भावमात्रात्' कहा उसका अर्थ इस प्रकार समजनादूसरो को इच्छित स्त्री-पुरुष संयोगादिरुप हेतु का सद्भावमात्र से गर्भादि के उद्भव का प्रसंग होने से.... गर्भादि सर्व अव्यवस्था होगी। तथा काल से पृथ्वी आदि पंचभूत परिपाक (परिणति)को प्राप्त करते है। काल प्रजा का संहार करता है। अर्थात् पूर्वपर्याय से च्यूत करके दूसरे पर्याय द्वारा लोगो को काल स्थापित करता है। काल सोते हुए को जगाता है। अर्थात् काल ही सोते हुए मानवी की आपत्ति से रक्षा करता है। इस प्रकार भावार्थ जानना । इसलिए स्पष्ट है कि काल का निराकरण करना संभवित नहीं है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org