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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १ १५ श्लोककी व्याख्या : अनंतधर्मात्मक वस्तु का अन्यदेश से निरपेक्ष एकदेश का जो अवधारण करना वह अपरिशुद्ध नय है। (अर्थात् अनंतधर्मात्मक वस्तु में रहे हुए एकधर्म को आगे करके, दूसरे धर्मों की उपेक्षा करके वर्णन करे वह अपरिशुद्धनय कहा जाता है। जैसे की, नित्यानित्य आत्मा के एक धर्म नित्यत्व की उपेक्षा करके, उसकी निरपेक्षरुप से अनित्यत्व धर्म की प्ररुपणा करे वह अपरिशुद्ध नय कहा जाता है) और वही वचनमार्ग कहा जाता है। इस अनुसार अनंतधर्मात्मक सर्ववस्तु के इतर अंशो के निरपेक्ष रुप में एक-एक अंशो को पेश करने के जितने प्रकार संभवित है, उतने अपरिशुद्धनय होते है और वे वचनमार्ग कहे जाते है। इसलिए "जावइया...." गाथा का अर्थ इस अनुसार होगा - सर्ववस्तुओ में जितनी संख्या में वचनपथ होते है। (अर्थात्) परस्पर (वस्तुके) एक देश के वाचक शब्दो के (जितने) मार्ग अर्थात् निर्णय करने के कारण-प्रकार होते है, वे नय है। उतने ही नयवाद होते है। (अर्थात्) तत् तत् वस्तु के एक देश के अवधारण के प्रकार स्वरुप नयो का प्रतिपादक जो शब्दप्रकार है, वे नयवाद कहे जाते है। जितने वस्तु के एक अंश के अवधारण वाचक शब्द के प्रकार है उतने ही परदर्शन है। अपनी अपनी इच्छा से विकल्पो की कल्पना की होने से परदर्शन असंख्यात है। कहने का आशय (मतलब) यह है कि, लोक में जितने तत् तत् अपरअपर वस्तु के एक-एक देश के अवधारण (निर्णय करने) के प्रतिपादक शब्द प्रकार होते है उतने ही परदर्शन है। इसलिए अपनी-अपनी कल्पनारुप शिल्पि (शिल्पकार) से सजित विकल्प अपरिमित है। क्योंकि, प्रत्येक की कल्पना अनियत होती है। इसलिए अनियत कल्पना में से नीकले हुए प्रवादो की संख्या भी अनियत होगी, वह समजा जा सकता है। इसलिए इस अनुसार अन्यदर्शन गणनातीत है। अथवा सूत्रकृदाख्ये द्वितीयेऽङ्गे परप्रवादुकानां त्रीणि शतानि त्रिषष्ट्यधिकानि परिसंख्यायन्ते । तदर्थसंग्रहगाथेयं- “A-असिइसयं किरियाणं अकिरियवाईण होइ चुलसीई । अन्नाणि अ सत्तट्ठी वेणइयाणं च वत्तीसं (बत्तीसा) ।। १ ।।" [सूत्रकृ० नि० गा० - ११९] अस्या व्याख्याअशीत्यधिकं शतम् । “किरियाणं ति" क्रियावादिनाम् । तत्र क्रियां जीवाद्यस्तित्वं वदन्तीत्येवंशीलाक्रियावादिनः, मरीचिकुमारकपिलोलूकमाठरप्रभृतयः । ते पुनरमुनोपायेनाशीत्यधिकशतसंख्या विज्ञेयाः । जीवाजीवाश्रवबन्धसंवरनिर्जरापुण्यापुण्यमोक्षरूपान्नव पदार्थान् A-10परिपाट्या पट्टिकादौ विरचय्य जीवपदार्थस्याधः स्वपरभेदावुपन्यसनीयौ । तयोरधो नित्यानित्यभेदौ, तयोरप्यधःA-11 कालेश्वरात्मनियतिस्वभावभेदाः पञ्च न्यसनीयाः । ततश्चैवं विकल्पाः कर्तव्याः । तद्यथा - अस्ति जीवः स्वतो नित्यः कालत इत्येको विकल्पः । अस्य च विकल्पस्यायमर्थःA-12 । विद्यते खल्वयमात्मा स्वेन रूपेण नित्यश्च कालतः कालवादिनो मते । A-13कालवादिनश्च नाम ते मन्तव्या ये कालकृतमेव जगत्सर्वं मन्यन्ते । तथा च ते प्राहुः । न कालमन्तरेण (A-9-10-11-12-13) -- तु० पा० प्र० प० ! Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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