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षड्दर्शन समुञ्चय भाग -१, श्लोक - १
असत्य बोलने में कारणभूत राग-द्वेष-मोह का नाश हुआ है। श्लोक के शेष पदो की व्याख्या पहले की तरह जानना।
एवं चात्रैवमुक्तं भवति । ये हि श्रीवीरस्य यथावदाप्तत्वादिपरीक्षां विधास्यन्ते स्याद्वादं च तत्प्रणीतं मध्यस्थतया सम्यगवलोक्य पश्चात् परमतान्यप्यालोकयिष्यन्ते, ते सत्यासत्यदर्शनविभागमपि स्वयमेवावभोत्स्यन्ते । किमस्मद्वचनस्यास्थाकरणाकरणेनेति । एतेन ग्रन्थकृता स्वस्य सर्वथात्रार्थे माध्यस्थ्यमेव दर्शितं द्रष्टव्यं । सत्यासत्यदर्शनविभागपरिज्ञानोपायश्च हितबुद्ध्यात्राभिहितोऽवगन्तव्यः, पुरातनैरपीत्थमेव सत्यासत्यदर्शनविभागस्य करणात् । तदुक्तं पूज्यश्री हरिभद्रसूरिभिरेव लोकतत्त्वनिर्णये । “बन्धुर्न नः स भगवान् रिपवोऽपि नान्ये, साक्षान्न दृष्टचर एकतरो(मो)ऽपि चैषाम् । श्रुत्वा वचः सुचरितं च पृथग्विशेषं, वीरं गुणातिशयलोलतया श्रिताः स्मः ।। १ ।। [लोकतत्त्व० १/३२] पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ।। २ ।।' [लोकतत्त्व० १/३८] प्रभुश्रीहेमसूरिभिरप्युक्तं वीरस्तुतौ
“न श्रद्धयैव त्वयि पक्षपातो, न द्वेषमात्रादरुचिः परेषु । यथावदाप्तत्वपरीक्षया तु, त्वामेव वीरप्रभुमाश्रिताः स्मः ।। १ ।। इति ।।" [अयोगव्य० श्लो०-२९] टीकाका भावानुवाद :
यहां कहने का तात्पर्य यह है कि जो लोग श्रीवीर परमात्मा की यथावद् आप्तत्व की परीक्षा करेंगे और उन्हों ने प्ररुपित किये हुए स्याद्वाद के सिद्धांत का मध्यस्थता से सम्यग् अवलोकन करके बाद में परमतोका भी निरीक्षण करेंगे (तब) वे स्वयमेव ही सत्यासत्यदर्शन के विभाग को कर सकेंगे (और स्वयं सोच सकेंगे) । हमारे वचन में श्रद्धा करने से या न करने से क्या? इससे ग्रंथकारश्री द्वारा अपने इस विषय में सर्वथा मध्यस्थपन बताया हुआ जानना और सत्यासत्यदर्शन के विभागज्ञान का उपाय हितबुद्धि से यहाँ कहा गया है ऐसा जानना । क्योंकि, पूर्वाचार्यो के द्वारा भी इसी प्रकार से सत्यासत्यदर्शन का विभाग किया गया है।
इसलिए लोकतत्त्वनिर्णय में पू.आ.भ.हरिभद्रसूरिजी द्वारा ही कहा गया है कि......... "वे वीर परमात्मा हमारे भाई नहीं है और अन्य (ब्रह्मादि) हमारे शत्रु भी नहीं है। क्योंकि उनमें से एक को भी साक्षात् दृष्टि से (हमने) देखा नहीं है। परन्तु श्रीवीर परमात्मा के वचन को सुनकर और उनका (अन्य देवो से) भिन्नविशेष चरित्र सुनकर (उनके) गुणो की अतिशय लोलुपता से (श्रीवीर परमात्मा का) आश्रय किया गया है। (१) वीर परमात्मा के ऊपर मेरा पक्षपात नहीं है। (अन्यदर्शन के प्रणेता ऐसे) कपिलादि के ऊपर द्वेष नहीं है, (परन्तु) जिनका वचन युक्तियुक्त हो, उसका वचन स्वीकार करना चाहिए । (२)"
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