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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १
__ (टीकाकार ने मंगल, अभिधेय, प्रयोजन और सम्बन्ध स्वरुप अनुबंधचतुष्टय का कथन किया है, यह स्वयं सोच लेना।)
इह हि जगति गरीयश्चित्तवता महतां परोपकारसंपादनमेव सर्वोत्तमा स्वार्थसंपत्तिरिति मत्वा परोपकारैकप्रवृत्तिसारश्चतुर्दशशतसंख्यशास्त्रविरचनाजनितजगज्जन्तूपकारः श्री जिनशासनप्रभावनाप्रभाताविर्भावनभास्करो -'याकिनीमहत्तरावचनानवबोधलब्धबोधिबन्धुरो भगवान् श्री हरिभद्रसूरिः षड्दर्शनीवाच्यस्वरूपं जिज्ञासूनां तत्तदीयग्रन्थविस्तरावधारणशक्तिविकलानां सकलानां विनेयानामनुग्रहविधित्सया स्वल्पग्रन्थं महार्थं सद्भूतनामान्वयं षड्दर्शनसमुञ्चयं शास्त्रं प्रारम्भमाणः शास्त्रारम्भे मङ्गलाभिधेययोः साक्षादभिधानाय संबन्धप्रयोजनयोश्च संसूचनाय प्रथमं लोकमेनमाहटीकाका भावानुवाद :
इस जगत में महान उदार चित्तवाले महापुरुषो की "परोपकार संपादन करना" यही सर्वोत्तम स्वसम्पत्ति है, ऐसा मानकर परोपकार मात्र (आपश्रीकी) प्रवृत्ति का सार है ऐसे १४४४ ग्रंथ की रचना द्वारा जगत के जीवो के ऊपर उपकार करनेवाले श्रीजिनशासन की प्रभावनारुप प्रभात (सूर्योदय) को प्रकट करनेवाले सूर्य समान, याकिनीमहत्तरासाध्वीजी के (कंठस्थ कराता हुआ श्लोकका) बोध नहि पाने से (और बाद में पू.आ.भ. के पास से श्लोकका) बोध पाये हुआ, सम्यक्त्व से शोभित पू.आ.भ.श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराजाने छः ये दर्शन के वाच्यार्थ (पदार्थ) के स्वरुपकी जिज्ञासावालो की जो तत् तत् दर्शन के उस उस आकर (विस्तृत वर्णन से युक्त) ग्रंथो को अवधारण करने की शक्ति से विफल (असमर्थ) है, वे सब शिष्यो के ऊपर अनुग्रह (उपकार) करने की इच्छा से शब्दो से छोटे और महाअर्थ से युक्त यथार्थ नामवाले षड्दर्शनसमुच्चय नाम के शास्त्र का प्रारंभ करते हुए ग्रंथ के प्रारम्भ में मंगल तथा अभिधेय के साक्षात्कथन के लिए तथा संबंध-प्रयोजन के सूचन के लिये यह प्रथम श्लोक कहते है। (मूल श्लो०) सद्दर्शनं जिनं नत्वा वीरं स्याद्वाददेशकम् ।
सर्वदर्शनवाच्योऽर्थः संक्षेपेण निगद्यते ।।१।। श्लोकार्थ : स्याद्वादसिद्धांत के प्ररुपक, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी श्री जिनेश्वर परमात्मा को नमस्कार करके सर्वदर्शनो के वाच्यार्थ (प्रतिपादित पदार्थ) को संक्षेप से कहा जाता है।
सत् शश्वद्विद्यमानं छाद्मस्थिकज्ञानापेक्षया प्रशस्तं वा दर्शनमुपलब्धिर्ज्ञानं केवलाख्यं यस्य स सद्दर्शनः । अथवा सत्प्रशस्तं दर्शनं केवलदर्शनं तदव्यभिचारित्वात्केवलज्ञानं च यस्य स सद्दर्शनः सर्वज्ञः सर्वदर्शी चेत्यर्थः तम् । अनेन विशेषणेन श्री वर्धमानस्य भगवतो ज्ञानातिशयमाविरबीभवत् । अथवा सदर्चितं सकलनरासुरामरेन्द्रादिभिरभ्यर्चितं दर्शनं जैनदर्शनं यस्य स सद्दर्शनस्तम् । अनेन
A-1 - तुलनात्मकपाठः परिशिष्टे द्रष्टव्यः ।
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