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षड्दर्शन समुच्चय ( हिन्दी भावानुवाद)
भाग-१
।। ॐ ह्रीं अर्हम् नमः ।। ।। श्रीहरिभद्रसूरिविरचितः श्रीगुणरत्नसूरिकृतवृत्तिसहितः ।।
षड्दर्शनसमुञ्चयः । जयति विजितरागः केवलालोकशाली सुरपतिकृतसेवः श्रीमहावीरदेवः ।
यदसमसमयाब्धेश्चारुगाम्भीर्यभाजः सकलनयसमूहा बिन्दुभावं भजन्ते ।। १।। श्रीवीरः स जिनः श्रिये भवतु यत्स्याद्वाददावाञ्टनले भस्मीभूतकुतर्ककाष्ठनिकरे तृण्यन्ति सर्वेऽप्यहो । संशीतिव्यवहारलुब्व्यतिकरानिष्टाविरोधप्रमाबाधासंभव-संकरप्रभृतयो दोषाः परै रोपिताः ।। २ ।। वाग्देवी संविदे नः स्यात्सदा या सर्वदेहिनाम् । चिन्तितार्थान् पिपर्तीह कल्पवल्लीव सेविता ।।३।। नत्वा निजगुरून् भक्त्या षड्दर्शनसमुञ्चये । टीकां संक्षेपतः कुर्वे स्वान्योपकृतिहेतवे ।। ४ ।।
(टीकाकारश्री टीकाकी रचना करते हुए प्रारंभ में टीकाकी निर्विघ्न समाप्ति के लिए तथा शिष्ट पुरुषो की आचरणा के परिपालन के लिए मंगल करते है।)
राग के विजेता, केवलज्ञानरुप प्रकाश के पुञ्ज, सुरेन्द्रो से सेवित श्रीमहावीर परमात्मा का जय हो, कि जिनके सुन्दर गाम्भीर्य को (वास्तविक गहराई को) धारण करनेवाले, किसीके साथ तुलना न की जा सके ऐसे आगमसमुद्र के आगे सब नयके (दर्शनके) समूह बिन्दुभाव को भजते है-बिन्दु समान बनके रह जाते है। (अर्थात् जिस प्रकार समुद्र अनंत जल बिन्दु के समूह को अपने में समा लेता है, उस प्रकार जैनशासन परदर्शनरूपी बिन्दुओ को अपने में समा लेता है।) ॥१॥
वे श्रीवीरजिनेश्वर परमात्मा (आपके) कल्याण के लिए हो, कि जिनके स्याद्वाद सिद्धान्तरुपी दावानल में भस्मीभूत हुए कुतर्करुपी काष्ठ के ढेर में, अहो ! अन्यदर्शनवालो के द्वारा (स्याद्वाद सिद्धांत में) आरोपित किये हुए संशय, व्यवहारलोप, व्यतिकर, अनवस्था, विरोध, प्रमाबाध, असंभव, संकर इत्यादि सर्व दोष भी तृणभाव को प्राप्त होते है। अर्थात् जल जाते है।।२।।
सेवित कल्पवल्ली जिस तरह सर्वजीवो के चिन्तित (इच्छित) अर्थो को हमेशां पूरा करती है, उसी तरह सरस्वती देवी हमारे सम्यग्ज्ञान के लिए हमेशां हो । ।३।।
भक्ति से अपने गुरुको नमस्कार करके, स्व-पर के उपकार के लिये षड्दर्शन समुच्चय के उपर संक्षेप में टीका करता हूं। ॥४॥
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