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मैथुन के दोष
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ऐसी वस्तु की दोष-रहित कहा गया है जो ‘अर्थापत्ति' प्रमाण की सहायता से दोषयुक्त सिद्ध हो चुकी ।
(टिप्पणी) जैसा कि हम देख चुके हैं, 'अधीत्य स्नायात्' इस मान्यता को आचार्य हरिभद्र जिस अर्थ में ग्रहण करते हैं उससे फलित होता है कि गृहस्थाश्रमप्रवेश एक अवश्य करणीय काम नहीं (अर्थात् वह एक निन्दित काम है) । इस प्रकार एक मान्यता का अर्थ-विश्लेषण करके उसके निहितार्थ का उद्घाटन करना भारतीय प्रमाण-शास्त्र की पारिभाषिक शब्दावली में कहलाता है 'अर्थापत्ति प्रमाण की सहायता से एक निहितार्थ का उद्घाटन करना' । अतएव आचार्य हरिभद्र का कहना है कि वे अर्थापत्ति प्रमाण की सहायता से गृहस्थाश्रम को सदोष सिद्ध कर चुके ।
तत्र प्रवृत्तिहेतुत्वात् त्याज्यबुद्धेरसंभवात् ।
विध्युक्तेरिष्टसंसिद्धेरुक्तिरेषा न भद्रिका ॥६॥
वस्तुत: 'मैथुन में कोई दोष नहीं' यह कहना अच्छी बात नहीं क्योंकि यह कथन लोगों के मैथुन में प्रवृत्त होने का कारण बनेगा, इसके कारण लोगों में यह समझ उत्पन्न नहीं होगी कि मैथुन एक त्याज्य वस्तुं है, इसके कारण लोग समझेंगे कि शास्त्र मैथुन का आदेश देता है—जिस आदेश का पालन उनके अपने अभीष्ट की सिद्धि करेगा ।
(टिप्पणी) इस कारिका का अर्थ ऐसा भी किया जा सकता है कि यहाँ गिनाए गए तीन प्रमाण परस्परस्वतंत्र नहीं बल्कि इनमें से पहले प्रमाण का समर्थन दूसरा प्रमाण करता है तथा दूसरे का समर्थन तीसरा ।
प्राणिनां बाधकं चैतच्छास्त्रे गीतं महर्षिभिः ।
नलिकातप्तकणकप्रवेशज्ञाततस्तथा ॥७॥
फिर शास्त्र में महर्षियों ने कहा है कि मैथुन में प्राणियों की हिंसा होती है-यह बात कही गई है बाँस की नली में जलती हुई लौहशलाका के प्रवेश के उस दृष्टान्त द्वारा ।
(टिप्पणी) यह एक जैन मान्यता है कि मैथुन के अवसर पर अनन्तसंख्यक सूक्ष्म जीवों की हिंसा होती है । और प्रस्तुत दृष्टान्त का इंगित इस ओर है कि बाँस की नली में जलती हुई लौहशलाका डालने से बाँस का भीतरी भाग जल-भुन जाता है ।
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