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अष्टक-२०
मूलं चैतदधर्मस्य भवभावप्रवर्धनम् ।
तस्माद् विषान्नवत्त्याज्यमिदं मृत्युमनिच्छता ॥८॥
दूसरे, मैथुन अधर्म की जड़ है तथा संसार-चक्र में भ्रमण की अवधि को बढ़ाने वाला है । अतः मृत्यु न चाहने वाले (अर्थात् मोक्ष चाहने वाले) व्यक्तियों को चाहिए कि वे मैथुन का त्याग उसी प्रकार करें जैसे विष-मिश्रित अन्न का ।
(टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र के दृष्टान्त का आशय यह है कि जिस प्रकार रुचिकर होते हुए भी विषमिश्रित अन्न इस अन्न को खाने वाले का मृत्यु का कारण बनता है उसी प्रकार रुचिकर होते हुए भी मैथुन मैथुन-सेवी व्यक्ति के पुनः पुनः जन्म का (अतः उसकी पुनः पुनः मृत्यु का) कारण बनता है।
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