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अष्टक - २०
सूचक भूत स्नान) करना चाहिए' तब उसका आशय यह है कि 'वेद का अध्ययन करके ही स्नान करना चाहिए' । इस प्रकार क्योंकि यहाँ शास्त्र का आशय यह नहीं कि (वेद का अध्ययन करके) स्नान करना ही चाहिए इसलिए सिद्ध होता है कि (शास्त्र की दृष्टि में) गृहस्थाश्रम एक निंदनीय वस्तु है । और क्योंकि मैथुन गृहस्थाश्रम में ही संभव है इसलिए मैथुन की प्रशंसा तर्क -युक्त नहीं ।
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(टिप्पणी) यह ब्राह्मण - परंपरा की एक मान्यता है कि एक त्रैवर्णिक व्यक्ति को चाहिए कि वह ब्रह्मचर्याश्रम में वेदाध्ययन समाप्त करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे । आचार्य हरिभद्र इस मान्यता का अर्थ यह करते हैं कि यदि कोई त्रैवर्णिक व्यक्ति गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहे तो उसे अवश्य ही वेदाध्ययन का काम पहले समाप्त कर लेना चाहिए । इस प्रकार उनकी समझ के अनुसार यह मान्यता एक त्रैवर्णिक व्यक्ति का गृहस्थाश्रम में प्रवेश अवश्यकरणीय नहीं ठहराती - अर्थात् उसे निंदित ठहराती है । स्वयं ब्राह्मण परंपरा में पल्लवित हुए संन्यासी सम्प्रदाय (उदाहरण के लिए अद्वैत वेदान्त सम्प्रदाय) प्रस्तुत मान्यता को तत्त्वतः उसी अर्थ में स्वीकार करेंगे जिस अर्थ में उसे यहाँ आचार्य हरिभद्र द्वारा स्वीकार किया जा रहा है; यह इसलिए कि इन सम्प्रदायों की दृष्टि में गृहस्थाश्रमप्रवेश एक अवश्यकरणीय काम उसी प्रकार नहीं जैसे कि वह आचार्य हरिभद्र की अपनी दृष्टि में नहीं । देखा जा सकता है कि जिस प्रकार माँस- भक्षण के प्रश्न पर आचार्य हरिभद्र का तर्क यह था कि किन्हीं विशेष परिस्थितियों में ही माँस भक्षण को वैध ठहराने वाली परंपरा 'न माँसभक्षणे दोषः ‘जैसा दो टूक विधान नहीं कर सकती उसी प्रकार मैथुन के प्रश्न पर उनका तर्क यह है कि किन्हीं विशेष व्यक्तियों के लिए ही गृहस्थाश्रमप्रवेश वैध ठहराने वाली परंपरा 'न च मैथुने (दोष) जैसा दो टूक विधान नहीं कर सकती ।
अदोषकीर्तनादेव प्रशंसा चेत् कथं भवेत् । अर्थापत्त्या सदोषस्य दोषाभावप्रकीर्तनात् ॥५॥
बचाव दिया जा सकता है कि शास्त्र में मैथुन का दोष रहित कहा जाना ही मैथुन की प्रशंसा किया जाना है (अथवा शास्त्र मैथुन की प्रशंसा उसे दोषरहित कहकर ही करता है) । लेकिन हम पूछते हैं कि यह कैसे (अर्थात् मैथुन की ऐसी प्रशंसा भी कैसे) और वह इसलिए कि प्रस्तुत शास्त्र - वाक्य में एक
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