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मैथुन के दोष
रागादेव नियोगेन मैथुनं जायते यतः ।
ततः कथं न दोषोऽत्र येन शास्त्रे निषिध्यते ॥१॥
क्योंकि मैथुन अवश्य ही राग का कारण होता है इसलिए उसमें कोई दोष कैसे नहीं ? और तब कोई शास्त्र कैसे मैथुन में दोष से इनकार कर सकता है (जैसे कि 'न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने' इस शास्त्र - वाक्य में किया गया है) ? [अथवा ‘क्योंकि मैथुन अवश्य ही राग का कारण होता है और क्योंकि शास्त्र में मैथुन का ( अथवा राग का) निषेध किया गया है इसलिए मैथुन में कोई दोष कैसे नहीं ? '] ।
धर्मार्थं पुत्रकामस्य स्वदारेष्वधिकारिणः । ऋतुकाले विधानेन यत् स्याद्दोषो न तत्र चेत् ॥२॥
(बचाव में कहा जा सकता है ) " एक अधिकारी (अर्थात् गृहस्थ ) व्यक्ति जिसे धर्मार्जन के उद्देश्य से पुत्र की इच्छा है वह यदि अपनी पत्नी के साथ ऋतु-काल में विधिपूर्वक मैथुन करे तो उसमें कोई दोष नहीं ।"
नापवादिककल्पत्वान्नैकान्तेनेत्यसंगतम् ।
वेदं ह्यधीत्य स्नायाद्यदधीत्यैवेति शासितम् ॥३॥
स्नायादेवेति न तु यत्ततो हीनो गृहाश्रमः । तत्र चैतदतो न्यायात् प्रशंसाऽस्य न युज्यते ॥४॥
(इस पर हमारा उत्तर है :) प्रस्तुत शास्त्र - विधान तो एक आपवादिक विधान जैसा है (अर्थात् एक ऐसा विधान जो उन व्यक्तियों के लिए है जो किसी नियमविशेष को — उदाहरण के लिए, मैथुन - विरति विषयक नियम कोपूर्णत: पालन करने में असमर्थ हैं); और ऐसी दशा में यह कहना युक्तिसंगत नहीं कि मैथुन में सर्वथा ही कोई दोष नहीं । यह इसलिए कि जब शास्त्र आदेश देता हे कि 'वेद का अध्ययन करके स्नान ( अर्थात् गृहस्थाश्रम - प्रवेश का
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