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________________ ६४ अष्टक-१९ (अथवा ऋद्धिरूप) तेज को धारण करने वाले एक ऋषि ने देवांगनाओं के फुसलाने में आकर मदिरा पी और उसके फलस्वरूप एक मूर्ख की भाँति अपना सर्वनाश कर डाला । कश्चिदृषिस्तपस्तेपे भीत इन्द्रः सुरस्त्रियः । क्षोभाय प्रेषयामास तस्यागत्य च तास्तकम् ॥४॥ विनयेन समाराध्य वरदाभिमुखं स्थितम् । जगुर्मद्यं तथा हिंसां सेवस्वाब्रह्म वेच्छया ॥५॥ (ऋषि की कथा इस प्रकार है :) "किसी ऋषि ने तप किया और इस बात से डरकर इन्द्र ने उस ऋषि को विचलित करने के लिए देवांगनाओं को उसके पास भेजी । वे देवांगनाएँ उस ऋषि के पास आई तथा अपने विनयपूर्ण व्यवहार से उन्होंने उसे प्रसन्न किया; और अब जब वह उन्हें वरदान देने को तैयार हुआ तब वे उससे बोलीं 'आप अपनी इच्छा से मदिरा, हिंसा तथा मैथुन इन तीन में से किसी एक का सेवन कीजिए' । स एवं गदितस्ताभिर्वयोर्नरकहेतुताम् । आलोच्य मद्यरूपं च शुद्धकारणपूर्वकम् ॥६॥ मद्यं प्रपद्य तद्भोगान्नष्टधर्मस्थितिर्मदात् । विदंशार्थमजं हत्वा सर्वमेव चकार सः ॥७॥ देवांगनाओं द्वारा ऐसा कहे जाने पर उस ऋषि ने सोचा कि हिंसा तथा मैथुन ये दो तो नरक का कारण हैं लेकिन मदिरा शुद्ध पदार्थों से बनती है। अतः उसने मदिरा को ही स्वीकार किया और उसके नशे में वह धर्म-मर्यादा का विवेक खो बैठा—जिसके फलस्वरूप अपना नशा उत्तेजित करने के लिए उसने एक बकरे को (माँस पाने के लिए) मारा और सभी कुछ (पाप-कर्म) किया। ततश्च भ्रष्टसामर्थ्यः स मृत्वा दुर्गतिं गतः ।। इत्थं दोषाकरो मद्यं विज्ञेयं धर्मचारिभिः ॥८॥ और तब उसकी सब सामर्थ्य (अर्थात् तप द्वारा अर्जित सामर्थ्य) नष्ट हो गई और वह मरकर दुर्गति को प्राप्त हुआ ।" इस प्रकार धार्मिक व्यक्तियों को समझना चाहिए कि मदिरा दोषों की खान है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004072
Book TitleAstaka Prakarana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1999
Total Pages142
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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