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माँस-भक्षण के दोष-२
जब प्राण-त्याग की नौबत आ बने तो एक व्यक्ति को माँस खा लेना चाहिए।"
अत्रैवासावदोषश्चेन्निवृत्तिर्नास्य सज्यते । - अन्यदाऽभक्षणादत्राभक्षणे दोषकीर्तनात् ॥६॥
बचाव दिया जा सकता है कि 'माँस-भक्षण में कोई दोष नहीं' वाली बात प्रस्तुत माँस-भक्षण को ध्यान में रखकर कही गई है, लेकिन यह बचाव उचित नहीं क्योंकि प्रस्तुत माँस-भक्षण के संबंध में यह नहीं कहा जा सकता कि उससे विरत होना वाञ्छनीय है । यह इसलिए कि प्रस्तुत स्थल में जब शास्त्र यह कहता है कि इन गिनाई गई स्थितियों में माँस नहीं खाना चाहिए तब वह यह भी कहता है कि इन गिनाई गई स्थितियों में माँस न खाने में दोष है ।
(टिप्पणी) प्रस्तुत कारिका में आचार्य हरिभद्र प्रश्न के एक दूसरे पहलू की ओर पाठक का ध्यान आकृष्ट करते हैं । वे पहले कह चुके हैं कि जो व्यक्ति किन्हीं विशेष परिस्थितियों में ही माँस-भक्षण वैध ठहराता है उसे 'न मांसभक्षणे दोषः' इस प्रकार का दो-टूक विधान नहीं करना चाहिए । अब वे कह रहे हैं कि जो व्यक्ति किन्हीं विशेष परिस्थितियों में मांसभक्षण अवश्य करणीय ठहराता है (अर्थात् जिस व्यक्ति की समझ यह है कि इन परिस्थितियों में माँस न खाने वाला व्यक्ति दोष का भागी है) वह इस माँस-भक्षण के संबंध में 'निवृत्तिस्तु महाफला' जैसी बात नहीं कह सकता ।
यथाविधि नियुक्तस्तु यो मांसं नात्ति वै द्विजः ।
स प्रेत्य पशुतां याति संभवानेकविंशतिम् ॥७॥ (यह रहा एतत्संबंधी शास्त्र-वाक्य :) "जिस स्थिति में जैसा माँस खाने का आदेश एक ब्राह्मण को शास्त्र देता है उस स्थिति में वैसा माँस न खाने वाला ब्राह्मण मरने के बाद २१ जन्मों में पशु होता है ।"
पारिवाज्यं निवृत्तिश्चेद्यस्तदप्रतिपत्तितः ।।
फलाभावः स एवास्य दोषो निर्दोषतैव न ॥८॥
कहा जा सकता है कि माँस-भक्षण का निषेध उस व्यक्ति के लिए है जो परिव्राजक (= गृहत्यागी) हो गया है, लेकिन तब तो जो व्यक्ति परिव्राजक नहीं होगा उसे वे फल (अर्थात् मोक्ष आदि) न मिलेंगे जो एक परिव्राजक को मिलते हैं और ऐसी दशा में इन फलों का न मिलना ही
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