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अष्टक-१८
का समावेश एक वाक्य-विशेष में करके । स्पष्ट ही यह एक शब्दालंकारमूलक वर्णन है, लेकिन उक्त वाक्य में कही गई बात माँस-भक्षण के विरुद्ध एक तर्क के रूप में वैसे भी उपस्थित की ही जा सकती है ।।
इत्थं जन्मैव दोषोऽत्र न मांसाद् बाह्यभक्षणम् ।
प्रतीत्यैष निषेधश्च न्याय्यो वाक्यान्तराद्गतेः ॥४॥
इस प्रकार उक्त रूप से जन्म ही (अर्थात् इस समय खाए गए प्राणी द्वारा खाए जाने के लिए जन्म ही) माँस-भक्षण का दोष है । यह भी नहीं कहा जा सकता कि यह दोष तथा उसके कारण किया जाने वाला निषेध उस माँसभक्षण पर लागू होता है जिसका विधान शास्त्र द्वारा न किया गया हो (अथवा 'और उस माँस-भक्षण को ध्यान में रखते हुए जिसका विधान शास्त्र में नहीं किया गया हो माँस-भक्षण में दोष से इनकार इस प्रकार से करना उचित नहीं (अर्थात् जिस सामान्य प्रकार से वह "न मांसभक्षणे दोषः" इस वाक्य में किया गया है), यह इसलिए कि इस बात की जानकारी (अर्थात् इस बात की कि शास्त्र किस स्थिति में माँस खाने का विधान करता है) हमें दूसरे शास्त्र-वाक्य से होती है।
(टिप्पणी) प्रस्तुत कारिका में आचार्य हरिभद्र का मुख्य भार इस बात पर है कि 'न मांसभक्षणे दोषः' इस प्रकार का दो-टूक विधान उस व्यक्ति को तो नहीं ही करना चाहिए जो माँस-भक्षण को सर्वथा अवैध ठहराता है लेकिन उस व्यक्ति को भी नहीं जो किन्हीं विशेष परिस्थितियों में माँस को वैध (अथवा अवश्य-करणीय तक) ठहराता है; क्योंकि जिस शास्त्र-वाक्य में कहा जाएगा कि अमुक परिस्थितियों में माँस-भक्षण वैध (अथवा अवश्य-करणीय तक) है उसी के द्वारा यह भी सूचित हो जाना चाहिए कि इन परिस्थितियों के न रहने पर माँस खाने वाला व्यक्ति दोष का भागी है। इस प्रश्न पर कुछ अतिरिक्त प्रकाश आगामी कारिकाएँ डालेंगी ।
प्रोक्षितं भक्षयेन्मांसं ब्राह्मणानां च काम्यया ।
यथाविधि नियुक्तस्तु प्राणानामेव वाऽत्यये ॥५॥ __(यह रहा उक्त शास्त्र-वाक्य) "वैदिक मंत्रों से पवित्र किया गया माँस एक व्यक्ति को खाना चाहिए, (निमंत्रण देकर खिलाए गए) ब्राह्मणों की अनुमति से एक व्यक्ति को माँस खाना चाहिए, जिस स्थिति में जिसे जैसा माँस खाने का आदेश शास्त्र देता है उस स्थिति में उसे वैसा माँस खाना चाहिए, या फिर
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