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अष्टक-१६
जहाँ तक आत्मा की नित्यता आदि का (अर्थात् उसकी नित्यता, अनित्यता, शरीर से भिन्नता, शरीर से अभिन्नता आदि का) प्रश्न है वह स्मरण (= एक पूर्वानुभूत वस्तु को याद करना) के आधार पर सिद्ध होती है, प्रत्यभिज्ञा (= एक पूर्व-परिचित वस्तु को पहचानना) के आधार पर सिद्ध होती है, शरीर से होने वाले किसी वस्तु के संस्पर्श के अनुभव के आधार पर (अथवा शरीर से संस्पर्श के आधार पर होने वाले किसी वस्तु के अनुभव के आधार पर) सिद्ध होती है और वह सिद्ध होती है लोक-प्रसिद्धि के आधार पर ।
(टिप्पणी) प्रस्तुत कारिका में स्मरण तथा प्रत्यभिज्ञान की वास्तविकता के आधार पर आचार्य हरिभद्र यह सिद्ध कर रहे हैं कि एक आत्मा नित्य तथा अनित्य दोनों है जबकि शरीर में होने वाली घटनाओं की आत्मा को होने वाली अनुभूति की वास्तविकता के आधार पर वे यह सिद्ध कर रहे हैं कि एक आत्मा शरीर से भिन्न तथा अभिन्न दोनों है । आचार्य हरिभद्र के मतानुसार एक स्मरण का कर्ता तथा उस पूर्व-अनुभव का कर्ता जो इस स्मरण का आधार है परस्पर भिन्न भी होने चाहिए और परस्पर अभिन्न भी, इसी प्रकार, एक प्रत्यभिज्ञान का कर्ता एवं विषय तथा उस पूर्व-अनुभव का कर्ता एवं विषय जो इस प्रत्यभिज्ञान का आधार है क्रमशः परस्पर भिन्न भी होने चाहिए और परस्पर अभिन्न भी । इसका अर्थ यह हुआ कि स्मरण तथा प्रत्यभिज्ञान की कर्ता भूत आत्माएँ (तथा प्रत्यभिज्ञान की विषयभूत वस्तुएँ) नित्य तथा अनित्य दोनों हैं । दूसरी ओर, आचार्य हरिभद्र की समझ है कि एक शरीर में होने वाली घटनाओं की अनुभूति उस शरीर से संबंधित आत्मा को तभी हो सकती है जब यह आत्मा तथा यह शरीर परस्पर भिन्न भी हों और परस्पर अभिन्न भी। आचार्य हरिभद्र का विश्वास है इन प्रश्नों से संबंधित उनकी समझ का ठीक मेल लोक-सामान्य की समझ के साथ बैठ जाता है ।
देहमात्रे च सत्यस्मिन् स्यात् संकोचादिधर्मिणि ।
धर्मादेरूर्ध्वगत्यादि यथार्थं सर्वमेव तु ॥७॥
और क्योंकि यह आत्मा शरीर के बराबर आकार वाली है तथा सिकुड़ने –फैलने वाली है इसलिए धर्माचरण के फलस्वरूप उन्नत गति प्राप्त करना आदि सब कुछ इसके लिए वास्तविक अर्थ में संभव बनता है ।
(टिप्पणी) यह एक जैन मान्यता है कि आत्मा शरीर के बराबर आकार वाली तथा सिकुड़ने-फैलने वाली एक वस्तु है । आचार्य हरिभद्र की समझ
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