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नित्यानित्यत्ववाद का समर्थन हो रहा होता है लेकिन क्योंकि मारने वाला व्यक्ति इस हिंसा में निमित्त अवश्य बनता है वह दोष-दूषित हिंसा (अर्थात् मारने वाले व्यक्ति के लिए अशुभ 'कर्म'-बंध कराने वाली हिंसा) 'मारने वाले की हिंसा' कहलाती है—इस आधार पर कि मारने वाले व्यक्ति का मन इस अवसर पर दुर्भावना-ग्रस्त बना ।
(टिप्पणी) प्रस्तुत कारिका में आचार्य हरिभद्र इस शंका का समाधान कर रहे हैं कि जब एक हिंसित व्यक्ति के मारे जाने का कारण उस व्यक्ति के अपने पूर्वार्जित अशुभ 'कर्म' हैं तब इस मारे जाने में हिंसक का क्या दोष । संक्षेप में आचार्य हरिभद्र का समाधान यह हैं कि हिंसक हिंसित की हिंसा का निमित्त कारण है और जो हिंसा का निमित्त कारण है वह दोष का भागी अवश्य होगा । हिंसित की हिंसा को 'हिंसक की हिंसा' कहना थोड़ा अटपटा प्रयोग अवश्य है लेकिन आचार्य हरिभद्र का आशय स्पष्ट है ।
ततः सदुपदेशादेः क्लिष्टकर्मवियोगतः ।
शुभभावानुबंधेन हन्तास्या विरतिर्भवेत् ॥४॥
ऐसी दशा में शोभन उपदेश आदि के श्रवण के फलस्वरूप होने वाले अशुभ 'कर्मों' के नाश से एक व्यक्ति के मन में शुभ भावनाओं का उदय होना संभव है, और शुभ भावनाओं के इस उदय के फलस्वरूप यह व्यक्ति हिंसा से निवृत्त हो जाएगा ।
अहिंसैषा मता मुख्या स्वर्गमोक्षप्रसाधनी ।
एतत्संरक्षणार्थं च न्याय्यं सत्यादिपालनम् ॥५॥
यह वास्तविक अर्थ वाली अहिंसा है जो स्वर्ग तथा मोक्ष का कारण सिद्ध होती है; और सत्य आदि का पालन इसी के संरक्षण के उद्देश्य से किया जाने पर न्यायोचित ठहरता है ।
(टिप्पणी) प्रस्तुत प्रकार की अहिंसा को आचार्य हरिभद्र 'मुख्या अहिंसा' अर्थात् मुख्य अर्थ वाली अहिंसा कह रहे हैं, क्योंकि वे दिखा चुके कि एक एकांगी नित्यत्ववादी अथवा एक एकांगी अनित्यत्ववादी जब अहिंसा की बात करता है और वे दोनों अहिंसा की बात करते अवश्य हैं—तब वह अहिंसा गौणी अहिंसा अर्थात् गौण अर्थ वाली अहिंसा हुआ करती है। .
स्मरण प्रत्यभिज्ञान देहसंस्पर्शवेदनात् । अस्य नित्यादिसिद्धिश्च तथा लोकप्रसिद्धितः ॥६॥
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